क्या सरकारी भूमि पूजन उचित है?
स्वतंत्रता के तुरंत बाद, इस मुद्दे पर कुछ प्रबुद्धजनों ने अपना विरोध दर्ज किया था व सरकार की धर्मनिरपेक्षता की नीति पर प्रश्नचिन्ह लगाए थे। पंडि़त नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में केन्द्रीय कैबिनेट ने न केवल सोमनाथ मंदिर का जीर्णोंधार सरकारी खर्च पर कराए जाने के प्रस्ताव को अमान्य कर दिया था वरन् तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को यह सलाह भी दी थी कि वे राष्ट्रपति की हैसीयत से मंदिर का उद्घाटन न करें। उस समय, सार्वजनिक पदों पर बैठे व्यक्तियों की तीर्थस्थानों, मंदिरों आदि की यात्राएं नितांत निजी हुआ करती थीं और इन यात्राओं के दौरान वे मीडिया से दूरी बनाकर रखते थे।
धीरे-धीरे समय बदला। आज राजनेताओं के बीच भगवान का आर्शीवाद प्राप्त करने की प्रतियोगिता चल रही है। राजनेताओं की मंदिरों व बाबाओं के आश्रमों की यात्राओं का जमकर प्रचार होता है। सरकारी इमारतों के उद्घाटन के मौके पर ब्राम्हण पंडि़त उपस्थित रहते हैं। सरकारी परियोजनाओं के शिलान्यास के पहले भूमिपूजन किया जाता है और मंत्रोच्चारण कर ईश्वर से परियोजना का कार्य सुगमतापूर्वक संपन्न करवाने की प्रार्थना की जाती है।
अभी हाल में राजेश सोलंकी नामक एक दलित सामाजिक कार्यकर्ता ने गुजरात उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर कर, न्यायालय के नए भवन के शिलान्यास समारोह के दौरान भूमिपूजन और मंत्रोच्चारण किए जाने को चुनौती दी। इस कार्यक्रम में राज्य के राज्यपाल व उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश भी उपस्थित थे। सोलंकी का तर्क था कि चूंकि हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है अतः राजकीय कार्यक्रमों में किसी धर्मविशेष के कर्मकांड नहीं किए जा सकते। ऐसा करना भारतीय संविधान के मूल सिद्धांतों के विरूद्ध होगा। भारतीय संविधान धर्मनिरपेक्ष है और धर्म और राज्य के बीच स्पष्ट विभाजक रेखा खींचता है। सोलंकी ने यह तर्क भी दिया कि अदालत के भवन के शिलान्यास के अवसर पर भूमिपूजन और ब्राम्हण पंडि़तों द्वारा मंत्रोच्चारण से न्यायपालिका की धर्मनिरेपक्ष छवि को आघात पहुंचा है।
सोलंकी की इस तार्किक और संवैधानिक याचिका को स्वीकार करने की बजाय न्यायालय ने उसे खारिज कर दिया। और तो और, याचिकाकर्ता पर बीस हजार रूपये का जुर्माना भी लगाया गया। अपने निर्णय में उच्च न्यायालय ने कहा कि धरती को इमारत के निर्माण के दौरान कष्ट होता है। भूमिपूजन के माध्यम से धरती से इस कष्ट के लिए क्षमा मांगी जाती है। भूमिपूजन के जरिए धरती से यह प्रार्थना भी की जाती है कि वह इमारत का भार सहर्ष वहन करे। भूमिपूजन करने से निर्माण कार्य सफलतापूर्वक संपन्न होता है। निर्णय में यह भी कहा गया है कि भूमिपूजन, वसुधैव कुटुम्बकम (पूरी धरती हमारा परिवार है) व सर्वे भवन्तु सुखिनः (सब सुखी हों) जैसे हिन्दू धर्म के मूल्यों के अनुरूप है। न्यायालय के ये सारे तर्क हास्यास्पद और बेबुनियाद हैं।
निर्माण कार्य शुरू करने के पहले धरती की पूजा करना शुद्ध हिन्दू अवधारणा है। दूसरे धर्मों के लोग यह नहीं करते जैसे, ईसाई धर्म में निर्माण शुरू करने के पहले पादरी द्वारा धरती पर पवित्र जल छिडका जाता है। जहां तक नास्तिकों का सवाल है, निर्माण के संदर्भ में उनकी मुख्य चिंता पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखना होती है।
शासकीय कार्यक्रमों में किसी धर्म विशेष के कर्मकांडों किए जाने को उचित ठहराना भारतीय संविधान के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन है। भारतीय संविधान, राज्य से यह अपेक्षा करता है कि वह सभी धर्मों से दूरी बनाए रखेगा और उनके साथ बराबरी का व्यवहार करेगा। एस.आर.बोम्मई के मामले में उच्चतम न्यायालय का फैसला भी यही कहता है। इस फैसले के अनुसार धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि
1) राज्य का कोई धर्म नहीं होगा
2) राज्य सभी धर्मों से दूरी बनाए रखेगा व
3) राज्य किसी धर्म को बढ़ावा नहीं देगा और ना ही राज्य की कोई धार्मिक पहचान होगी।
यह सही है कि विभिन्न धर्मों द्वारा प्रतिपादित नैतिक मूल्न्यों को पूरा समाज व देश स्वीकार कर सकता है परंतु यह बात धार्मिक कर्मकांडों पर लागू नहीं होती। यद्यपि धर्मों की मूल आत्मा उनके नैतिक मूल्य है पंरतु आमजनों की दृष्टि में, कर्मकांड ही विभिन्न धर्मों के प्रतीक बन गए हैं। कर्मकांडों के मामले में तो धर्मों के भीतर भी अलग-अलग मत और विचार रहते हैं।
कबीर, निजामुद्दीन औलिया व महात्मा गाँधी जैसे संतो ने धर्मों के नैतिक पहलू पर जोर दिया। जहां तक धार्मिक कर्मकांडों, परंपराओं आदि का संबंध है, उनमें बहुत भिन्नताएं हैं। एक ही धर्म के अलग-अलग पंथों के कर्मकांडों, पूजा पद्धति आदि में भी अंतर रहता है।
उच्च न्यायालय का यह निर्णय संविधान के अनुच्छेद 51 (ए) के भी विरूद्ध है। यह अनुच्छेद राज्य पर वैज्ञानिक एवं तार्किक सोच को बढ़ावा देने की जिम्मेदारी डालता है। राज्य द्वारा किसी भी एक धर्म के कर्मकांडों, परंपराओं, रीतियों आदि को बढ़ावा देना संविधान के विरूद्ध है। वैसे भी, श्रद्धा और अंधश्रद्धा के बीच की विभाजाक रेखा बहुत सूक्ष्म होती है। श्रद्धा को अंधश्रद्धा का रूप लेते देर नहीं लगती और अंधश्रद्धा समाज को पिछडेपन व दकियानूसी सोच की ओर धकेलती है।
जहां तक किसी इमारत के निर्माण का प्रश्न है अगर संबंधित तकनीकी व भूगर्भीय मानको का पालन नहीं किया जावेगा तो दुर्घटनाएं होने की संभावना बनी रहेगी। यही कारण है कि इमारतों के निर्माण के पूर्व कई अलग-अलग एजेन्सियों से अनुमति लेने का प्रावधान किया गया है। अगर इन प्रावधानों का पालन किए बगैर इमारतें बनाई जाएगीं तो भूमिपूजन करने के बावजूद, दुर्घटनाएं होंगी ही।
हमारे न्यायालयों को इन संवैधानिक पहलुओं का ध्यान रखना चाहिए। अजीबोगरीब तर्क देकर यह साबित करने की कोशिश करना हमारे न्यायालयों को शोभा नहीं देता कि किसी धर्म के कर्मकांडों और रूढियों को राज्य द्वारा अपनाना उचित है।
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने कहा था, “उस भारत, जिसके निर्माण के लिए मैं जीवन भर काम करता रहा हॅू, में प्रत्येक नागरिक को बराबरी का दर्जा मिलेगा-चाहे उसका धर्म कोई भी हो। राज्य को पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष होना ही होगा“ (“हरिजन“ 31 अगस्त 1947) व “धर्म किसी व्यक्ति की देशभक्ति का मानक नहीं हो सकता। वह तो व्यक्ति और उसके ईश्वर के बीच का व्यक्तिगत मसला है“ व “धर्म हर व्यक्ति का व्यक्तिगत मसला है और उसका राजनीति या राज्य के मसलों से घालमेल नहीं होना चाहिए।“
पिछले कुछ दशकों से हिन्दू धार्मिक परंपराएं व रीतियां, राजकीय परंपराएं व रीतियां बनती जा रहीं है। इस प्रक्रिया पर तुरंत रोक लगाए जाने की जरूरत है।
-राम पुनियानी
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