सुबह सवेरे
इन्सान का जन्म हे ,
सुबह
जब किकारती हें नदियाँ
चेह्चाती हें चिड़ियें
जब इंसान का बचपन होता हे ,
दोपहर जब तपता हे सूरज
तब इन्सान की जवानी हे
रात जब होने लगती हे
तो फिर वोह जवानी का उतार हे
अँधेरी रात हुई अगर
तो बस समझो वोह बुढापा हे
तो दोस्तों यही जिंदगी हे
नहीं नहीं यह जिंदगी नहीं हे
क्योंकि सूरज रोज़ निकलेगा
सुबह रोज़ होगी
रात रोज़ होगी
दोपहर रोज़ होगी
लेकिन हम होंगे या नहीं होंगे
यह कोई पक्का भरोसा नहीं हे
तो दोस्तों उठों
इस अनमोल अनिश्चित जिंदगी को
जब तक खुदा ने इसे हमें दी हे
हंस कर ,बोलकर,प्यार , भाई चारा बाँट कर
जी डालें क्यूंकि यही तो हे जिंदगी ।
अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान
तुम अपने किरदार को इतना बुलंद करो कि दूसरे मज़हब के लोग देख कर कहें कि अगर उम्मत ऐसी होती है,तो नबी कैसे होंगे? गगन बेच देंगे,पवन बेच देंगे,चमन बेच देंगे,सुमन बेच देंगे.कलम के सच्चे सिपाही अगर सो गए तो वतन के मसीहा वतन बेच देंगे.
07 अक्तूबर 2010
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बहुत सुन्दर रचना है।बधाई स्वीकारें।
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