हवा में झूलती अधरशिला एक अजूबा*
*सूफी संत से जुड़ी कहानी... हिंदू मुस्लिम एकता का प्रतीक*
देश और दुनिया में कई अजूबे ऐसे हैं, जिन्हें देखकर लोग दांतों तले उंगली दबा लेते हैं. वैसे अजूबो का महत्व ऐतिहासिक विरासत को संरक्षित करने, सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देने और कलात्मक उपलब्धियौ को प्रदर्शित करने, पर्यटन को आकर्षित करके आर्थिक लाभ प्रदान करने में निहित है. वैसे ही प्राकृतिक अजूबे पृथ्वी की अद्वितीय सुंदरता और शक्ति को दर्शाते हैं, जो मनुष्य द्वारा निर्मित नहीं होते, यह अजूबे न केवल मनोरम दर्शनीय स्थल है बल्कि स्थानीय समुदायों और अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण संसाधन, प्रेरणा और पहचान का स्रोत भी है. कई अजूबे स्थानीय समुदायों के जीवन, संस्कृति और इतिहास को आकार देते हैं. वह पहचान और प्रेरणा का स्रोत बन जाते हैं.
मैं बात कर रहा हूं कोटा नगर में स्थित "अधर शिला दरगाह" की. यह एक ऐसा अजूबा है, भारी भरकम चट्टान चंबल नदी के किनारे की तरफ झुकी हुई है, देखने में ऐसा लगता है कि एक धुंरी पर टिकी है. यह कोटा रावतभाटा रोड पर स्थित है. चंबल के दाहिनी तट पर सदियों से एक विशाल चट्टान पत्थर पर इस प्रकार टिकी हुई है कि प्रतिपल इसके गिरने की आशंका बनी रहती है, परंतु यह पल कभी नहीं आया. अधरशिला दरगाह में हर वर्ष उर्स में लाखों जायारीन आते हैं. नजदीक में गोदावरी धाम स्थित है, हिंदू मुस्लिम एकता का प्रतीक भी है.
कोटा के इतिहासकार फिरोज अहमद के अनुसार अधरशिला के संबंध में उर्दू की एक पुस्तक " जवाहर उल इसरार" मैं इस प्रकार की जानकारी मिलती है कि इस शिला को अपने समय के प्रसिद्ध दो मायावी तांत्रिक पालकानाथ और सूरज ने इराक के शहर हमदान से आए सूफी संत मीर सैयद अली हमदानी और उनके साथियों को खत्म करने के लिए इस विशाल चट्टान को हवा में उड़ाया था, परंतु जैसे ही चट्टान सूफी संत के करीब पहुंची, तब उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की..कि है! ईश्वर चट्टान तेरे आदेश से फेंकी गई है तो यह हम पर गिर जाए और यदि मायावियों ने फेंकी है तो, यह चट्टान जिस पत्थर पर में बैठा हूं, यहीं पर स्थिर हो जाए. इतना कहना था कि चट्टान वही स्थिर हो गई. यह शिला तभी से सभी के लिए आश्चर्य और कोतुहल का विषय बनी हुई है. जिस समय अमीर सैयद हमदानी चंबल के किनारे इबादत के लिए आए थे, उस समय अकेलगढ़ में कोटिया भील का शासन था. कोटिया भील ने जब उनको और साथ मौजूद साथियों को कष्ट देना शुरू किया तो सूफी संत ने कोटिया भील को बद्दुआ दी..कि तेरा शासन समाप्त होगा. कुछ समय के बाद कोटिया भील एक युद्ध में बूंदी के राजकुमार जीत सिंह के हाथों मारा गया और जेत सिंह ने एक नया नगर चंबल के किनारे बसाया, जो बाद में कोटा कहलाया. जब तक कोटा बैराज का निर्माण नहीं हुआ था तब तक चंबल की सात अधर्शिला से करीब डेढ़ सौ फीट नीचे होती थी, तब इतनी ऊंचाई पर तिरछी लटकी शिला का दृश्य लोगों को दांतों तले उंगली दबाने पर मजबूर कर देता था.
अधरशिला दरगाह पर प्रतिवर्ष ख्वाजा गरीब नवाज अजमेर के बाद तीन दिवसीय उर्स भरता है, जिसमें देश भर से जायरीन आते हैं. इसके अलावा प्रतिदिन सैकड़ो श्रद्धालु यहां पर मन्नत मांगने आते हैं, सूफी संत का निधन यहीं पर हुआ था. इनका संबंध सूफी संप्रदाय की कादरिया शाखा से था.
उर्दू की पुस्तक "जवाहर उल इसरार" के अनुसार सूफी संत सैयद अमीर अली हमदानी का जन्म इराक शहर के हमदान में हुआ था, जहां उनकी शिक्षा भी हुई. सैयद मीर सूफी मत के विद्वान थे, हमदानी अपने गुरु के आदेश पर सूफी मत के प्रचार के लिए निकले थे, वह सबसे पहले इराक कर के खतलान गए, जहां खानकहां बनवाई. उसके बाद में कश्मीर आए और यहां अलाउद्दीन कूड़ा में मस्जिद बनवाई और सूफी मत का प्रचार किया. बाद में श्रीनगर कश्मीर होते हुए दिल्ली आए और सूफी संत ख्वाजा बख्तियार काकी के रोजे मुबारक पर कुछ दिन रुके और इबादत की. यहां से जयपुर होते हुए ख्वाजा गरीब नवाज के रोजे मुबारक पर आए, यहां कुछ दिन इबादत की तत्पश्चात वह कोटा में चंबल के किनारे आकर रुके, उनके साथ सात लोगों का काफिला था. सूफी संत ने सूफी मत के गुढ रहस्य पर 170 किताबें लिखी थी. इस दरगाह में "सुंइ का नाका" भी एक आजमाइश का सुंदर मनोरंजन है. अधरशिला के नीचे चट्टान में गुफा नुमा एक सकरा रास्ता बना हुआ है. जहां से आने वाले सैलानियों को रेगकर आर पार निकलने की चुनौती मिलती है. किवदती है कि इस नाकेम से सिर्फ एक बाप वाला इंसान ही पार हो सकता है.
यह शिला अपने आकार सुंदरता व अद्वितीय गुणों के कारण असाधारण और लुभावनी प्रतीत होती है. हवा में झूलती इस शिला को देख कर पर्यटक अचंभित होते हैं.
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