और ये लोग (ख़़ुदा की राह में) थोड़ा या बहुत माल नहीं खर्च करते और
किसी मैदान को नहीं क़तआ करते मगर फौरन (उनके नामाए अमल में) उनके नाम लिख
दिया जाता है ताकि ख़ुदा उनकी कारगुज़ारियों का उन्हें अच्छे से अच्छा बदला
अता फरमाए (121)
और ये भी मुनासिब नहीं कि मोमिननि कुल के कुल (अपने घरों में) निकल खड़े
हों उनमें से हर गिरोह की एक जमाअत (अपने घरों से) क्यों नहीं निकलती ताकि
इल्मे दीन हासिल करे और जब अपनी क़ौम की तरफ पलट के आवे तो उनको (अज्र व
आखि़रत से) डराए ताकि ये लोग डरें (122)
ऐ इमानदारों कुफ्फार में से जो लोग तुम्हारे आस पास के है उन से लड़ों और
(इस तरह लड़ना) चाहिए कि वह लोग तुम में करारापन महसूस करें और जान रखो कि
बेशुबहा ख़ुदा परहेज़गारों के साथ है (123)
और जब कोई सूरा नाजि़ल किया गया तो उन मुनाफिक़ीन में से (एक दूसरे से)
पूछता है कि भला इस सूरे ने तुममें से किसी का ईमान बढ़ा दिया तो जो लोग
ईमान ला चुके हैं उनका तो इस सूरे ने ईमान बढ़ा दिया और वह वहा उसकी
खुशियाँ मनाते है (124)
मगर जिन लोगों के दिल में (निफाक़ की) बीमारी है तो उन (पिछली) ख़बासत पर
इस सूरो ने एक ख़बासत और बढ़ा दी और ये लोग कुफ्ऱ ही की हालत में मर गए
(125)
क्या वह लोग (इतना भी) नहीं देखते कि हर साल एक मरतबा या दो मरतबा बला
में मुबितला किए जाते हैं फिर भी न तो ये लोग तौबा ही करते हैं और न नसीहत
ही मानते हैं (126)
और जब कोई सूरा नाजि़ल किया गया तो उसमें से एक की तरफ एक देखने लगा (और
ये कहकर कि) तुम को कोई मुसलमान देखता तो नहींे है फिर (अपने घर) पलट जाते
हैं (ये लोग क्या पलटेगें गोया) ख़ुदा ने उनके दिलों को पलट दिया है इस सबब
से कि ये बिल्कुल नासमझ लोग हैं (127)
लोगों तुम ही में से (हमारा) एक रसूल तुम्हारे पास आ चुका (जिसकी
शफक़्क़त (मेहरबानी) की ये हालत है कि) उस पर शाक़ (दुख) है कि तुम तकलीफ
उठाओ और उसे तुम्हारी बेहूदी का हौका है इमानदारो पर हद दर्जे शफीक़
मेहरबान हैं (128)
ऐ रसूल अगर इस पर भी ये लोग (तुम्हारे हुक्म से) मुँह फेरें तो तुम कह दो
कि मेरे लिए ख़ुदा काफी है उसके सिवा कोई माबूद नहीं मैने उस पर भरोसा रखा
है वही अर्श (ऐसे) बुर्जूग (मख़लूका का) मालिक है (129)
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