सूरए तौबा मदीना में नाजि़ल हुआ और इसमें एक सौ उनतीस (129) आयतें हैं
(ऐ मुसलमानों) जिन मुशरिकों से तुम लोगों ने सुलह का एहद किया था अब ख़ुदा और उसके रसूल की तरफ से उनसे (एक दम) बेज़ारी है (1)
तो (ऐ मुशरिकों) बस तुम चार महीने (ज़ीकादा, जिल हिज्जा, मुहर्रम रजब) तो
(चैन से बेख़तर) रूए ज़मीन में सैरो सियाहत (घूम फिर) कर लो और ये समझते
रहे कि तुम (किसी तरह) ख़़ुदा को आजिज़ नहीं कर सकते और ये भी कि ख़़ुदा
काफि़रों को ज़रूर रूसवा करके रहेगा (2)
और ख़़ुदा और उसके रसूल की तरफ से हज अकबर के दिन (तुम) लोगों को मुनादी
की जाती है कि ख़़ुदा और उसका रसूल मुशरिकों से बेज़ार (और अलग) है तो
(मुशरिकों) अगर तुम लोगों ने (अब भी) तौबा की तो तुम्हारे हक़ में यही
बेहतर है और अगर तुम लोगों ने (इससे भी) मुह मोड़ा तो समझ लो कि तुम लोग
ख़़ुदा को हरगिज़ आजिज़ नहीं कर सकते और जिन लोगों ने कुफ्र इख़्तेयार किया
उनको दर्दनाक अज़ाब की ख़ुश ख़बरी दे दो (3)
मगर (हाँ) जिन मुशरिकों से तुमने एहदो पैमान किया था फिर उन लोगों ने भी
कभी कुछ तुमसे (वफ़ा एहद में) कमी नहीं की और न तुम्हारे मुक़ाबले में किसी
की मदद की हो तो उनके एहद व पैमान को जितनी मुद्द्त के वास्ते मुक़र्रर
किया है पूरा कर दो ख़़ुदा परहेज़गारों को यक़ीनन दोस्त रखता है (4)
फिर जब हुरमत के चार महीने गुज़र जाएँ तो मुशरिको को जहाँ पाओ (बे
ताम्मुल) कत्ल करो और उनको गिरफ्तार कर लो और उनको कै़द करो और हर घात की
जगह में उनकी ताक में बैठो फिर अगर वह लोग (अब भी शिर्क से) बाज़ आए और
नमाज़ पढ़ने लगें और ज़कात दे तो उनकी राह छोड़ दो (उनसे ताअरूज़ न करो)
बेशक ख़ुदा बड़ा बख़्शने वाला मेहरबान है (5)
और (ऐ रसूल) अगर मुशरिकीन में से कोई तुमसे पनाह मागें तो उसको पनाह दो
यहाँ तक कि वह ख़़ुदा का कलाम सुन ले फिर उसे उसकी अमन की जगह वापस पहुँचा
दो ये इस वजह से कि ये लोग नादान हैं (6)
(उनका एहद) क्योंकर (रह सकता है) जब (उनकी ये हालत है) कि अगर तुम पर ग़लबा पा जाए तो तुम्हारे में न तो रिश्ते नाते ही का लिहाज़ करेगें और न अपने क़ौल व क़रार का ये लोग तुम्हें अपनी ज़बानी (जमा खर्च में) खुश कर देते हैं हालाँकि उनके दिल नहीं मानते और उनमें के बहुतेरे तो बदचलन हैं (8)
और उन लोगों ने ख़ुदा की आयतों के बदले थोड़ी सी क़ीमत (दुनियावी फायदे) हासिल करके (लोगों को) उसकी राह से रोक दिया बेशक ये लोग जो कुछ करते हैं ये बहुत ही बुरा है (9)
ये लोग किसी मोमिन के बारे में न तो रिश्ता नाता ही कर लिहाज़ करते हैं और न क़ौल का क़रार का और (वाक़ई) यही लोग ज़्यादती करते हैं (10)
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