आपका-अख्तर खान

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26 सितंबर 2018

ऐसे सहमी सी कई शाखें है

सादर अभिवादन ,
आज रात्रि का एक और चिन्तन मनन .......और विश्लेषण
तूने लफ्जों की स्याही फेरी है
उसमें तस्वीर एक उकेरी है
में तो परछाईं हूँ अमावस की
जी वो जो तस्वीर है तेरी है ।

कितनी बातें रखूं बता तराजू पर
मेरी यादें बहुत कमेरी हैं।
उलझ के रही सब बही मेरी
कभी गुस्सा पाव है पसेरी है ।
खुद को कैसे समेटा भोर तले
तूने रश्मि कभी बिखेरी है ।
तेरी बातों को भी क्या समझूँ
कभी शहतूत मिर्च केरी है ।
अजी नादां है रिवाजें भी
कुछ तो रस्में भी बहुत बहरी हैं ।
ये नदी यूँ ही नही आज
यहाँ ऐसे ठिठकी और ठहरी है ।
हे अमलताश पे भी सन्नाटा हुई
गुमसुम कई गिलहरी है ।
ऐसे सहमी सी कई शाखें है
जैसे सहमी हुई टिटहरी है ।
बात कह लूँ कितनी लेकिन
मेरी हर चोट बहुत गहरी है
मयकदे थक गये तब कहीं
हे जुबाँ थोड़ी लहरी लहरी है ।
उससे मिलने में जब देर हुई
भोर लगती मुझे दोपहरी है ।
आयी सरजमीं पसीने से लदी
बुँदे कितनी वो सुनहरी हैं ।
फिर एक फ़क्कड़ यायावर
चन्द्रशेखर त्रिशूल

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