आपका-अख्तर खान

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04 जुलाई 2025

जिस्म से वो साथ था मगर गुम कही उसका चेहरा था शायद,

 

जिस्म से वो साथ था मगर गुम कही उसका चेहरा था शायद,
इश्क का मारा बंदा उसका जख़्म भी हरा हरा था शायद ,
मुतमइन भी होता उसका कल्ब बेवजह दिखावटी हो,
उसके दिल का भी घाव थोड़ा बहुत सुनहरा था शायद ,
मुद्दतों साथ रहे हम फिर भी न रूबरू हुई मै उसकी शक्ल से,
हमारे नजदीकियों के दरमियाँ दूरियों घना कोहरा था शायद ,
खोयी खोयी सी रहती उसके चेहरे की नजाकत हमेशा,
मुख्तसर् सी जिंदगी में किसी की यादों का पहरा था शायद ,
मैने कह दी उससे अपने दिल की दास्ताँ दिलशाद मेरे,
मेरी दास्ताँ सुनने वाला वो बेगैरत दिल से बहरा था शायद ,

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