﴾ 170 ﴿ और जब उनसे[1] कहा जाता है कि जो (क़ुर्आन)
अल्लाह ने उतारा है, उसपर चलो, तो कहते हैं कि हम तो उसी रीति पर चलेंगे,
जिसपर अपने पूर्वजों को पाया है। क्या यदि उनके पूर्वज कुछ न समझते रहे तथा
कुपथ पर रहे हों, (तब भी वे उन्हीं का अनुसरण करते रहेंगे?)
1. अर्थात अह्ले किताब तथा मिश्रणवादियों से।
﴾ 171 ﴿ उनकी दशा जो काफ़िर हो गये, उसके समान है, जो उसे (अर्थात पशु को) पुकारता है, जो हाँक-पुकार के सिवा कुछ[1] नहीं सुनता, ये (काफ़िर) बहरे, गोंगे तथा अंधे हैं। इसलिए कुछ नहीं समझते।
1. अर्थात ध्वनि सुनता है परन्तु बात का अर्ध नहीं समझता।
﴾ 172 ﴿ हे ईमान वालो! उन स्वच्छ चीज़ों में से खाओ, जो हमने तुम्हें दी हैं तथा अल्लाह की कृतज्ञता का वर्णन करो, यदि तुम केवल उसी की इबादत (वंदना) करते हो।
﴾ 173 ﴿ (अल्लाह) ने तुमपर मुर्दार[1] तथा (बहता) रक्त और सुअर का माँस तथा जिसपर अल्लाह के सिवा किसी और का नाम पुकारा गया हो, उन्हें ह़राम (निषेध) कर दिया है। फिर भी जो विवश हो जाये, जबकि वह नियम न तोड़ रहा हो और आवश्यक्ता की सीमा का उल्लंघन न कर रहा हो, तो उसपर कोई दोष नहीं। अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान् है।[1]
1. जिसे धर्म विधान के अनुसार वध न किया गया हो, अधिक विवरण सूरह माइदह में आ रहा है। 2.अर्थात ऐसा विवश व्यक्ति जो ह़लाल जीविका न पा सके उस के लिये निषेध नहीं कि वह अपनी आवश्यक्तानुसार ह़राम चीज़ें खा ले। परन्तु उस पर अनिवार्य है कि वह उस की सीमा का उल्लंघन न करे और जहाँ उसे ह़लाल जीविका मिल जाये वहाँ ह़राम खाने से रुक जाये।
﴾ 174 ﴿ वास्तव में, जो लोग अल्लाह की उतारी पुस्तक (की बातों) को छुपा रहे हैं और उनके बदले तनिक मूल्य प्राप्त कर लेते हैं, वे अपने उदर में केवल अग्नि भर रहे हैं तथा अल्लाह उनसे बात नहीं करेगा और न उन्हें विशुध्द करेगा और उन्हीं के लिए दुःखदायी यातना है।
﴾ 175 ﴿ यही वे लोग हैं, जिन्होंने सुपथ (मार्गदर्शन) के बदले कुपथ खरीद लिया है तथा क्षमा के बदले यातना। तो नरक की अग्नि पर वे कितने सहनशील हैं?
﴾ 176 ﴿ इस यातना के अधिकारी वे इसलिए हुए कि अल्लाह ने पुस्तक सत्य के साथ उतारी और जो पुस्तक में विभेद कर बैठे, वे वास्तव में, विरोध में बहुत दुर निकल गये।
﴾ 177 ﴿ भलाई ये नहीं है कि तुम अपना मुख पूर्व अथवा पश्चिम की ओर फेर लो! भला कर्म तो उसका है, जो अल्लाह और अन्तिम दिन (प्रलय) पर ईमान लाया तथा फ़रिश्तों, सब पुस्तकों, नबियों पर (भी ईमान लाया), धन का मोह रखते हुए, समीपवर्तियों, अनाथों, निर्धनों, यात्रियों तथा याचकों (काफ़िरों) को और दास मुक्ति के लिए दिया, नमाज़ की स्थापना की, ज़कात दी, अपने वचन को, जब भी वचन दिया, पूरा करते रहे एवं निर्धनता और रोग तथा युध्द की स्थिति में धैर्यवान रहे। यही लोग सच्चे हैं तथा यही (अल्लाह से) डरते[1] हैं।
1. इस आयत का भावार्थ यह है कि नमाज़ में क़िब्ले की ओर मुख करना अनिवार्य है, फिर भी सत्धर्म इतना ही नहीं कि धर्म की किसी एक बात को अपना लिया जाये। सत्धर्म तो सत्य आस्था, सत्कर्म और पूरे जीवन को अल्लाह की आज्ञा के अधीन कर देने का लाम है।
﴾ 178 ﴿ हे ईमान वालो! तुमपर निहत व्यक्तियों के बारे में क़िसास (बराबरी का बदला) अनिवार्य[1] कर दिया गया है। स्वतंत्र का बदला स्वतंत्र से लिया जायेगा, दास का दास से और नारी का नारी से। जिस अपराधी के लिए उसके भाई की ओर से कुछ क्षमा कर[2] दिया जाये, तो उसे सामान्य नियम का अनुसरण (अनुपालन) करना चाहिये। निहत व्यक्ति के वारिस को भलाई के साथ दियत (अर्थदण्ड) चुका देना चाहिये। ये तुम्हारे पालनहार की ओर से सुविधा तथा दया है। इसपर भी जो अत्याचार[3] करे, तो उसके लिए दुःखदायी यातना है।
1. अर्थात यह नहीं हो सकता कि निहत की प्रधानता अथवा उच्च वंश का होने के कारण कई व्यक्ति मार दिये जायें, जैसा कि इस्लाम से पूर्व जाहिलिय्यत की रीति थी कि एक के बदले कई को ही नहीं, यदि निर्बल क़बीला हो तो, पूरे क़बीले ही को मार दिया जाता था। इस्लाम ने यह नियम बना दिया कि स्वतंत्र तथा दास और नर नारी सब मानवता में बराबर हैं। अतः बदले में केवल उसी को मारा जाये जो अपराधी है। वह स्वतंत्र हो या दास, नर हो या नारी। (संक्षिप्त, इब्ने कसीर) 2. क्षमा दो प्रकार से हो सकता हैः एक तो यह कि निहत के लोग अपराधी को क्षमा कर दें। दूसरा यह कि क़िसास को क्षमा कर के दियत (अर्थदण्ड) लेना स्वीकार कर लें। इसी स्थिति में कहा गया है कि नियमानुसार दियत (अर्थदण्ड) चुका दे। 3. अर्थात क्षमा कर देने या दियत लेने के पश्चात् भी अपराधी को मार डाले तो उसे क़िसास में हत किया जायेगा।
﴾ 179 ﴿ और हे समझ वालो! तुम्हारे लिए क़िसास (के नियम में) जीवन है, ताकि तुम रक्तपात से बचो।[1]
1. क्योंकि इस नियम के कारण कोई किसी को हत करने का साहस नहीं करेगा। इस लिये इस के कारण समाज शांतिमय हो जायेगा। अर्थात एक क़िसास से लोगों के जीवन की रक्षा होगी। जैसा कि उन देशों में जहाँ क़िसास का नियम है देखा जा सकता है। क़ुर्आन ओर सेकेत करते हुये यह कहता है कि क़िसास नियम के अन्दर वास्तव में जीवन है।
﴾ 180 ﴿ और जब तुममें से किसी के निधन का समय हो और वह धन छोड़ रहा हो, तो उसपर माता-पिता और समीपवर्तियों के लिए साधारण नियमानुसार वसिय्यत (उत्तरदान) करना अनिवार्य कर दिया गया है। ये आज्ञाकारियों के लिए सुनिश्चित[1] है।
1. यह वसिय्यत (मीरास) की आयत उतरने से पहले अनिवार्य थी, जिसे (मीरास) की आयत से निरस्त कर दिया गया। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का कथन है कि अल्लाह ने प्रतयेक अधिकारी को उस का अधिकार दे दिया है, अतः अब वारिस के लिये कोई वसिय्यत नहीं है। फिर जो वारिस न हो तो उसे भी तिहाई धन से अधिक की वसिय्यत उचित नहीं है। (सह़ीह़ बुख़ारीः4577, सुनन अबू दावूदः2870, इब्ने माजाः2210)
1. अर्थात अह्ले किताब तथा मिश्रणवादियों से।
﴾ 171 ﴿ उनकी दशा जो काफ़िर हो गये, उसके समान है, जो उसे (अर्थात पशु को) पुकारता है, जो हाँक-पुकार के सिवा कुछ[1] नहीं सुनता, ये (काफ़िर) बहरे, गोंगे तथा अंधे हैं। इसलिए कुछ नहीं समझते।
1. अर्थात ध्वनि सुनता है परन्तु बात का अर्ध नहीं समझता।
﴾ 172 ﴿ हे ईमान वालो! उन स्वच्छ चीज़ों में से खाओ, जो हमने तुम्हें दी हैं तथा अल्लाह की कृतज्ञता का वर्णन करो, यदि तुम केवल उसी की इबादत (वंदना) करते हो।
﴾ 173 ﴿ (अल्लाह) ने तुमपर मुर्दार[1] तथा (बहता) रक्त और सुअर का माँस तथा जिसपर अल्लाह के सिवा किसी और का नाम पुकारा गया हो, उन्हें ह़राम (निषेध) कर दिया है। फिर भी जो विवश हो जाये, जबकि वह नियम न तोड़ रहा हो और आवश्यक्ता की सीमा का उल्लंघन न कर रहा हो, तो उसपर कोई दोष नहीं। अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान् है।[1]
1. जिसे धर्म विधान के अनुसार वध न किया गया हो, अधिक विवरण सूरह माइदह में आ रहा है। 2.अर्थात ऐसा विवश व्यक्ति जो ह़लाल जीविका न पा सके उस के लिये निषेध नहीं कि वह अपनी आवश्यक्तानुसार ह़राम चीज़ें खा ले। परन्तु उस पर अनिवार्य है कि वह उस की सीमा का उल्लंघन न करे और जहाँ उसे ह़लाल जीविका मिल जाये वहाँ ह़राम खाने से रुक जाये।
﴾ 174 ﴿ वास्तव में, जो लोग अल्लाह की उतारी पुस्तक (की बातों) को छुपा रहे हैं और उनके बदले तनिक मूल्य प्राप्त कर लेते हैं, वे अपने उदर में केवल अग्नि भर रहे हैं तथा अल्लाह उनसे बात नहीं करेगा और न उन्हें विशुध्द करेगा और उन्हीं के लिए दुःखदायी यातना है।
﴾ 175 ﴿ यही वे लोग हैं, जिन्होंने सुपथ (मार्गदर्शन) के बदले कुपथ खरीद लिया है तथा क्षमा के बदले यातना। तो नरक की अग्नि पर वे कितने सहनशील हैं?
﴾ 176 ﴿ इस यातना के अधिकारी वे इसलिए हुए कि अल्लाह ने पुस्तक सत्य के साथ उतारी और जो पुस्तक में विभेद कर बैठे, वे वास्तव में, विरोध में बहुत दुर निकल गये।
﴾ 177 ﴿ भलाई ये नहीं है कि तुम अपना मुख पूर्व अथवा पश्चिम की ओर फेर लो! भला कर्म तो उसका है, जो अल्लाह और अन्तिम दिन (प्रलय) पर ईमान लाया तथा फ़रिश्तों, सब पुस्तकों, नबियों पर (भी ईमान लाया), धन का मोह रखते हुए, समीपवर्तियों, अनाथों, निर्धनों, यात्रियों तथा याचकों (काफ़िरों) को और दास मुक्ति के लिए दिया, नमाज़ की स्थापना की, ज़कात दी, अपने वचन को, जब भी वचन दिया, पूरा करते रहे एवं निर्धनता और रोग तथा युध्द की स्थिति में धैर्यवान रहे। यही लोग सच्चे हैं तथा यही (अल्लाह से) डरते[1] हैं।
1. इस आयत का भावार्थ यह है कि नमाज़ में क़िब्ले की ओर मुख करना अनिवार्य है, फिर भी सत्धर्म इतना ही नहीं कि धर्म की किसी एक बात को अपना लिया जाये। सत्धर्म तो सत्य आस्था, सत्कर्म और पूरे जीवन को अल्लाह की आज्ञा के अधीन कर देने का लाम है।
﴾ 178 ﴿ हे ईमान वालो! तुमपर निहत व्यक्तियों के बारे में क़िसास (बराबरी का बदला) अनिवार्य[1] कर दिया गया है। स्वतंत्र का बदला स्वतंत्र से लिया जायेगा, दास का दास से और नारी का नारी से। जिस अपराधी के लिए उसके भाई की ओर से कुछ क्षमा कर[2] दिया जाये, तो उसे सामान्य नियम का अनुसरण (अनुपालन) करना चाहिये। निहत व्यक्ति के वारिस को भलाई के साथ दियत (अर्थदण्ड) चुका देना चाहिये। ये तुम्हारे पालनहार की ओर से सुविधा तथा दया है। इसपर भी जो अत्याचार[3] करे, तो उसके लिए दुःखदायी यातना है।
1. अर्थात यह नहीं हो सकता कि निहत की प्रधानता अथवा उच्च वंश का होने के कारण कई व्यक्ति मार दिये जायें, जैसा कि इस्लाम से पूर्व जाहिलिय्यत की रीति थी कि एक के बदले कई को ही नहीं, यदि निर्बल क़बीला हो तो, पूरे क़बीले ही को मार दिया जाता था। इस्लाम ने यह नियम बना दिया कि स्वतंत्र तथा दास और नर नारी सब मानवता में बराबर हैं। अतः बदले में केवल उसी को मारा जाये जो अपराधी है। वह स्वतंत्र हो या दास, नर हो या नारी। (संक्षिप्त, इब्ने कसीर) 2. क्षमा दो प्रकार से हो सकता हैः एक तो यह कि निहत के लोग अपराधी को क्षमा कर दें। दूसरा यह कि क़िसास को क्षमा कर के दियत (अर्थदण्ड) लेना स्वीकार कर लें। इसी स्थिति में कहा गया है कि नियमानुसार दियत (अर्थदण्ड) चुका दे। 3. अर्थात क्षमा कर देने या दियत लेने के पश्चात् भी अपराधी को मार डाले तो उसे क़िसास में हत किया जायेगा।
﴾ 179 ﴿ और हे समझ वालो! तुम्हारे लिए क़िसास (के नियम में) जीवन है, ताकि तुम रक्तपात से बचो।[1]
1. क्योंकि इस नियम के कारण कोई किसी को हत करने का साहस नहीं करेगा। इस लिये इस के कारण समाज शांतिमय हो जायेगा। अर्थात एक क़िसास से लोगों के जीवन की रक्षा होगी। जैसा कि उन देशों में जहाँ क़िसास का नियम है देखा जा सकता है। क़ुर्आन ओर सेकेत करते हुये यह कहता है कि क़िसास नियम के अन्दर वास्तव में जीवन है।
﴾ 180 ﴿ और जब तुममें से किसी के निधन का समय हो और वह धन छोड़ रहा हो, तो उसपर माता-पिता और समीपवर्तियों के लिए साधारण नियमानुसार वसिय्यत (उत्तरदान) करना अनिवार्य कर दिया गया है। ये आज्ञाकारियों के लिए सुनिश्चित[1] है।
1. यह वसिय्यत (मीरास) की आयत उतरने से पहले अनिवार्य थी, जिसे (मीरास) की आयत से निरस्त कर दिया गया। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का कथन है कि अल्लाह ने प्रतयेक अधिकारी को उस का अधिकार दे दिया है, अतः अब वारिस के लिये कोई वसिय्यत नहीं है। फिर जो वारिस न हो तो उसे भी तिहाई धन से अधिक की वसिय्यत उचित नहीं है। (सह़ीह़ बुख़ारीः4577, सुनन अबू दावूदः2870, इब्ने माजाः2210)
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