आपका-अख्तर खान

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26 जुलाई 2014

पलकें सूख गई हैं उनकी

नदियों को सिसकते देखा है,
पलकें सूख गई हैं उनकी
फसलों का मातम है ,
सूखे पेड़ इंतज़ार में फंदे लटकाए
जमीन छाती फाड़े देख रही है
उपने घाव जो गहराते जा रहे हैं
आसमानी फ़रिश्ते नाराज हैं
आते हैं ..बनाते हैं चित्र काले ..धूसर
जागती है कोई उम्मीद सी
जैसे नन्हा बीज आँख खोलता है
और दम तोड़ देता है प्यास से

हां, नदियाँ सिसक रही है
अरे ज्योतिषियों बाँचो जरा पत्रा
देखो तो ग्रह नक्षत्र नदियों के
कब विदा हो रही हैं ये ..जमीन से
कब उड़ेगी धूल ..भूखी लाशों पर सूखी
सुना है आदमी विकास कर रहा है
जमीन के स्तन नंगे हो गये हैं
पेट तो चीर ही रहे हैं खनिज भूख में
सांस कैसे ले जमीन
धमनियों का रक्त सूखने को है
इन धमनियों को विकास ने दूषित किया है
क्या छोड़ जायेंगे हम ..औलादों के लिए
विष भरी हवा ..कला कीचड़ नदियों में
याद रखो ..इस बार कोई भागीरथ नहीं आएगा
हाँ मरुस्थक खुश हो रहा है ..ठहाके लगा रहा है
सुनो ...नदियों की सिसकियाँ ..मातम कर रही हैं
शब्द मसीहा

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