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06 मार्च 2014

माँ कोई अलफ़ाज़ ,,कोई जज़बात ,,कोई दिखावटी रिश्ता नहीं ,,माँ एक खून से खून का रिश्ता है


माँ कोई अलफ़ाज़ ,,कोई जज़बात  ,,कोई दिखावटी रिश्ता नहीं ,,माँ एक खून से खून का रिश्ता है ,,एक माँ नो माह तकलीफे पाकर ,, ना जाने कितनी प्रसव पीड़ा के दौर से गुज़र कर जब एक बच्चे को जन्म देती है तब वोह माँ कहलाती है ,,नो माह गर्भ में माँ अपने इस बच्चे को पहले खून पिलाती है फिर जन्म देने के बाद दूध पिलाती है ,अपना सब कुछ त्याग कर बच्चो का लालन पालन ही उसका प्रमुख उद्देश्य रहता है ,,रातो को जागना ,,रोते हुए को लोरी गा कर सुनाना ,, हग्ना ,,मूतना साफ़ करना ,,बच्चे को खाना खिलाना ,,ऊँगली पकड़ कर चलना सिखाना ,,देश दुनिया और समाज के बारे में एक मार्गदर्शक के रूप में अपने बच्चे को दुनियादारी सिखाना यह सब माँ का काम है ,,इसीलिए तो जब बच्चा पहली बार ज़ुबान खोलता है तो उसके मुंह से सिर्फ और सिर्फ माँ ही निकलता है ,,रोता बिलखता है ,,दुःख दर्द में होता है तब बच्चे के मुंह से सिर्फ और सिर्फ माँ ही निकलता है ,,,,,,इस्लाम में माँ का महत्व जन्नत के दर्जे के बराबर है जबकी हिन्दू धर्म में माँ एक मार्गदर्शक ,,रक्षक और संरक्षक के रूप में है ,,माँ पारवती के लिए गणेश जी ने शिवजी से जंग की ,,तो सीता माँ के लिए लव कुश ने अपने पिता भगवान राम से जंग की ,,,,कुल मिलाकर देश ,,समाज ,,धर्म ,,  कोई भी फलसफा हो माँ का दर्जा सर्वोच्च है ,दुगा माँ ,काली माँ नवरात्रा के वक़त इनका प्रभाव होता है और यह भी एक जन्मदात्री की तरह से दुखो से संरक्षण देती है ऐसा धर्म कहता है ,,,,,,,,,,,,माँ के लिए किसी ने क्या खूब कहा है ,,,,,,,,,,,,,,,
माँ' जिसकी कोई परिभाषा नहीं,
जिसकी कोई सीमा नहीं,
जो मेरे लिए भगवान से भी बढ़कर है
जो मेरे दुख से दुखी हो जाती है
और मेरी खुशी को अपना सबसे बड़ा सुख समझती है
जिसकी छाया में मैं अपने आप को महफूज़
समझती हूँ, जो मेरा आदर्श है
जिसकी ममता और प्यार भरा आँचल मुझे
दुनिया से सामना करने की ‍शक्ति देता है
जो साया बनकर हर कदम पर
मेरा साथ देती है
चोट मुझे लगती है तो दर्द उसे होता है
मेरी हर परीक्षा जैसे
उसकी अपनी परीक्षा होती है
माँ एक पल के लिए भी दूर होती है तो जैसे
कहीं कोई अधूरापन सा लगता है
हर पल एक सदी जैसा महसूस होता है
वाकई माँ का कोई विस्तार नहीं
मेरे लिए माँ से बढ़कर कुछ नहीं।
तुझे सब है पता मेरी माँ...
हाँ, माँ को सब पता होता है जो हम बताते हैं वो भी और जो नहीं बताते वो भी। जैसे भगवान से कुछ नहीं छुपता वैसे ही माँ से कुछ नहीं छुपता। मैंने और शायद आपने भी इस सच्‍चाई को कई बार महसूस कि‍या होगा। माँ से छुपना आसान है लेकि‍न उससे छुपाना बेहद मुश्कि‍ल है। जन्‍म लेने के बाद खुद को जानने में हमारी जिंदगी नि‍कल जाती है लेकि‍न माँ तो हमें तब से जानती है जब हम अजन्‍मे होते हैं।

हमारे सुख दुख की जि‍तनी साक्षी हमारी माँ होती है उतना शायद ही कोई ओर हो, भले ही फि‍र माँ सामने हो या ना हो। माँ सि‍र्फ एक रिश्‍ता नहीं होता वो एक संस्‍कार है, एक भावना है, एक संवेदना है। संस्‍कार इसलि‍ए क्‍योंकि‍ वो आपके लि‍ए सि‍र्फ और सि‍र्फ अच्‍छा सोचती है, भावना इसलि‍ए क्‍योंकि‍ वो आपके साथ दि‍ल से जुड़ी होती है और संवेदना इसलि‍ए क्‍योंकि‍ वो आपको हमेशा प्रेम ही देती है।

हम अपने जीवन की हर पहली चीज में अपनी माँ को ही पाते हैं। इस दुनि‍या से हमें जोड़ने वाली माँ ही होती है और माँ के साथ ही हमारे हर नए रि‍श्‍ते की शुरुआत होती है। माँ के साथ जुड़ा हर रि‍श्ता हमारा हो जाता है। माँ हमें जन्‍म के बाद से सि‍र्फ देती ही है कभी कुछ लेती नहीं है। उसके साथ हम सभी बहुत सहज महसूस करते है।

दूसरे रि‍श्तों को नि‍भाने में हमें सतर्कता बरतनी पड़ती है, सोचना पड़ता है, समझना पड़ता है लेकि‍न माँ के साथ नि‍बाह तो यूँ ही नि‍र्बाध बहते पानी की तरह हो जाता है क्‍योंकि‍ हम जानते है कि‍ माँ को तो सब पता है उसके साथ कैसी असहजता। हम ये सब कुछ सोच-समझ के नहीं करते अपि‍तु ये सब स्‍वाभावि‍क रूप से हम कर जाते हैं शायद इसलि‍ए कि‍ हम माँ से गर्भत: जुड़े होते हैं।

इन सबके बीच माँ कभी हमें जानने का दावा नहीं करती। क्‍योंकि‍ वो इसकी जरूरत नहीं समझती। वो जिंदगी भर सि‍र्फ हमारे लि‍ए जीती है। हम कि‍तनी ही बार उससे उलझ लेते हैं। लेकि‍न वो हमेशा हमें उलझनों से नि‍कालती रहती है। जरा सोच कर देखिए कि‍ हम हर उम्र में उसे अपनी तरह से तंग कि‍या करते हैं।

बचपन में हमारा रातों को जागना और दि‍न में सोना, माँ हमारे लि‍ए कई रातों तक सो नहीं पाती, दि‍न में उसे घर की जि‍म्‍मेदारी सोने नहीं देती। तब हम अपने बचपने में उसे समझ नहीं पाते। जैसे जैसे हम बड़े होते हैं, हमारी पढ़ाई लि‍खाई की जि‍म्‍मेदारी भी उसकी ही है और साथ ही अच्‍छे संस्‍कारों की भी जि‍म्‍मेदारी भी उसकी ही होती है। बड़े होते ही हमारी अपनी सोच बनती है, हमें एक वैचारिक दृष्टि‍ मि‍लती है।

हमारी ये सोच जमाने की हवा के साथ बनती है और इसी के चलते कभी-कभी हमारे अपनी माँ से वैचारि‍क मतभेद भी हो जाते है लेकि‍न माँ तो हर जमाने में माँ ही होती है। हम फि‍र एक बार उसे समझ नहीं पाते और वो फि‍र एक बार मात खा जाती है वो भी हमारे लि‍ए। ये वि‍डंबना ही है कि‍, बचपन में हम बच्‍चे होने की वजह से माँ को समझ नहीं पाते और बड़प्‍पन बड़े होने की वजह से उसे समझ नहीं पाते।

माँ को एक व्‍यक्ति‍ के रूप में नहीं समझा जा सकता। उसे समझने के लि‍ए समाज और संसार के व्‍यवहारों से ऊपर उठना पड़ता है। माँ को समझने के लि‍ए भावना का धरातल चाहि‍ए। एक व्‍यक्ति‍ के तौर पर हो सकता है कभी माँ से हमारे मतभेद हो जाए लेकि‍न माँ कभी गलत नहीं होती, बच्‍चा उसके लि‍ए दुनि‍यादारी से अलग होता है।
संतान की खुशी और उसका सुख ही माँ के लि‍ए उसका संसार होता है। अक्‍सर जब मैं माँ से पूछती हूँ कि‍ माँ तुम ऐसी क्‍यों हो? माँ का जवाब हमेशा एक ही होता है 'इसे जानने के लि‍ए माँ बनना जरूरी है'। सच ही है, माँ कहने, सुनने, लि‍खने या सवाल-जवाब का विषय नहीं है केवल अनुभव करने का वि‍षय है
 माँ की महिमा बताते हुए राष्ट्रसंत मुनि तरुण सागर जी का कथन है '2 किलो का पत्थर 5 घंटे पेट से बाँधकर रखो, पता पड़ जाएगा माँ क्या होती है।'
माँ, समूची धरती पर बस यही एक रिश्ता है जिसमें कोई छल-कपट नहीं होता। कोई स्वार्थ, कोई प्रदूषण नहीं होता। इस एक रिश्ते में निहित है अनंत गहराई लिए छलछलाता ममता का सागर। शीतल, मीठी और सुगंधित बयार का कोमल अहसास। इस रिश्‍ते की गुदगुदाती गोद में ऐसी अनुभूति छुपी है मानों नर्म-नाजुक हरी ठंडी दूब की भीनी बगिया में सोए हों।

माँ, इस एक शब्द को सुनने के लिए नारी अपने समस्त अस्तित्व को दाँव पर लगाने को तैयार हो जाती है। नारी अपनी संतान को एक बार जन्म देती है। लेकिन गर्भ की अबोली आहट से लेकर उसके जन्म लेने तक वह कितने ही रूपों में जन्म लेती है। यानी एक शिशु के जन्म के साथ ही स्त्री के अनेक खूबसूरत रूपों का भी जन्म होता है।

बयार का कोमल अहसास

पल- पल उसके ह्रदय समुद्र में ममता की उद्दाम लहरें आलोडि़त होती है। अपने हर 'ज्वार' के साथ उसका रोम-रोम अपनी संतान पर न्योछावर होने को बेकल हो उठता है। नारी अपने कोरे कुँवारे रूप में जितनी सलोनी होती है उतनी ही सुहानी वह विवाहिता होकर लगती है लेकिन उसके नारीत्व में संपूर्णता आती है माँ बन कर। संपूर्णता के इस पवित्र भाव को जीते हुए वह एक अलौकिक प्रकाश से भर उठती है।

माँ हर रूप में खास
उसका चेहरा अपार कष्ट के बावजूद हर्ष से चमकने लगता है। उसकी आँखों में खुशियों के सैकड़ों दीप झिलमिलाने लगते हैं। लाज और लावण्य से दीपदिपाते इस चेहरे को किसी भाषा, किसी शब्द और किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं होती। 'माँ' शब्द की पवित्रता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि हिन्दू धर्म में देवियों को माँ कहकर पुकारते है। बेटी या बहन के संबोधनों से नहीं। मदर मैरी और बीवी फातिमा का ईसाई और मुस्लिम धर्म में विशिष्ट स्थान है।

माँ के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए एक दिवस नहीं एक सदी भ‍ी कम है। किसी ने कहा है ना कि सारे सागर की स्याही बना ली जाए और सारी धरती को कागज मान कर लिखा जाए तब भी माँ की महिमा नहीं लिखी जा सकती। माँ को कुछ लोग  अल्फ़ाज़ों में भी समेट कर रखते है ,,,,,
माँ ………
माँ पर लिखने वालो की कमी नही है
कोई माँ को जीवन कहता है अपना
किसी के लिए माँ उसकी धड़कन है
तो किसी के लिए भगवान का वरदान है

किसी ने माँ को शब्दों में उलझाकर
माँ से प्यार जताया और किसी ने
माँ को प्यार तो किया मगर कभी
शब्दों का सहारा लेकर जताया नही

माँ पर लिखने का मेरा कोई मन नही है। मैं तो बस एक सच लिखना चाहती हूँ। वो सच जिसे जानकर भी हम सब अनजान रहते हैं। यहाँ हम सब से मतलब सिर्फ हम सभी से नही बल्कि दुनिया के हर उस घर से है जहाँ पर “माँ ” रहती है।

नन्हे नन्हे से हाथ
मासूम सी मुस्कान
पापा की लाडली
माँ की पहचान

युवावस्था के सपने
कुछ अनजाने कुछ अपने
आसमान में उड़ने की ख्वाहिश
पलती थी उसके मन में

शादी हुई तो सारे सपने हवा हो गये
और जो हवा में थे सपनो के साथ
वो जमीं पर आ गिरे तो समझ आया
कि कैसे एक पल में अपने पराये हो जाते हैं



एक दिन पूछा मैंने माँ से
आपके “अपने” कोई सपने नही हैं
जिन्हें पूरा करने की सोची हो कभी
और कर नही पाई हो.…….

मेरी बात सुनकर माँ बोली कुछ नही
सिर्फ मुस्कुराई ………

लेकिन इतनी नासमझ
तो मैं भी नही हूँ
कि कुछ भी न समझू
माँ की खामोश आँखों में
सब पढ़ लिया था मैंने
और समझ भी लिया था
जीवन की सच्चाई को…………

माँ के लिए बदल चुका है
अर्थ अब सपनो का
वो सपने जो माँ की
आँखों में पलते थे
वो सपने थे
कि “मुझे कुछ बनना है ”
“मुझे कुछ करना है ”
मगर आज……
मगर आज जो सपने
देखती है माँ
वो सपने होते हैं
कि “बच्चे खुश रहे”
“बच्चे पढ़ लिख जाये”
“बच्चे कुछ बन जाये”
“मेरा परिवार खुश रहे ”
“घर का हर सदस्य सुखी रहे”

“मुझे कुछ बनना है” के सपने
“बच्चे कुछ बन जाये” में
कब बदल गये शायद
माँ भी नही जानती
परिवार की ख़ुशी की
दुआ करते करते
माँ ने कब अपनी ख़ुशी का
त्याग करना सीख लिया शायद
माँ को भी ये याद नही होगा

सूरज के जगने से पहले
हर सुबह जगती है माँ
घर-परिवार को सवांरने में
दिन भर व्यस्त रहती है माँ
किसी की भूख का ख्याल रहता है
तो कभी किसी की प्यास के लिए
खुद रह जाती है प्यासी माँ
दिन होता है एक छुट्टी का सब के लिए
मगर हर रोज ही काम करती है माँ
जरा से दर्द से रोने लगते हैं हम अक्सर
मगर हर दर्द ख़ामोशी से सह लेती है माँ
है फ़िक्र सबकी माँ को मगर एक खुद की नही
कष्ट किसी को न हो जाये थोडा सा भी इसलिए
बीमार होकर भी सब काम करती है माँ
इनाम मिलता है कई बार घर वालो से
जब ये कि “तुम सारा दिन करती क्या हो”
तो भी ख़ामोशी से सब काम निबटाती है माँ
अगर कोई कहे कि जरा थोडा तो
खुद का भी ख्याल रखा करो
तो इस बात पर बस हँस देती है माँ
जानती है माँ कि वो जान है उसके घर की
फिर भी अपनी जान को जोखिम में डाल देती है माँ


माँ अपने परिवार के लिए, अपने बच्चो के लिए अपना सारा जीवन कुर्बान कर देती है, अपने सपनो को भूल जाती है, अपनी खुशियों का त्याग कर देती है तो क्या हम सिर्फ तब ” जब माँ को जरूरत होती है” तब भी माँ की सहायता नही कर सकते ! अगर हम माँ के किये हुए बलिदान का 1/4 भी माँ के लिए करें तो माँ को भी अपनी भागती दौडती जिन्दगी में दो पल सुकून के मिल जाये !

आज दुर्गा माँ के पहले नवरात्र और अपने जन्मदिन के अवसर पर दुनिया की सभी माँओ को मेरा सलाम और एक दुआ कि आप सभी हमेशा खुश रहे, स्वस्थ रहे और यूँ ही हम सभी से प्यार करती रहे !

माँ आप जीयो हजारो साल
साल के दिन हो असीमित
आप रहो हमेशा हमारे ही साथ
इस्लाम के नज़रिये से ,,,,,,,,
माँ की दुआ जन्नत की हवा होती है

अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने शरीयत में माँ को बहुत बड़ा मुक़ाम अता किया है। कहते हैं कि माँ की दुआ जन्नत की हवा होती है। जो मुहब्बत की नज़र अपनी वालिदा के चेहरा पर डालता है, अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त एक हज या उमरा का सवाब अता फ़रमाता है। सहाबा किराम रज़ी० ने पूछा जो बार बार मुहब्बत-ओ-अक़ीदत से देखे?। आप ( स०अ०व०) ने फ़रमाया जितनी बार देखेगा इतनी बार हज या उमरा का सवाब पाएगा।

इसीलिए हमारे मशाइख़ ने फ़रमाया कि माँ के क़दमों को बोसा देना काअबा की दहलीज़ को बोसा देने के मुतरादिफ़ ( बराबर) है, इसलिए कि माँ के क़दमों में जन्नत होती है। ख़ुशनसीब है वो इंसान, जिस ने माँ की ख़िदमत की, माँ के दिल को राज़ी कर लिया और माँ की दुआएं हासिल की।

एक वली की वालिदा फ़ौत हो गई। अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने इलहाम फ़रमाया ए मेरे प्यारे बंदे! जिस की दुआएं तेरी हिफ़ाज़त करती थीं, अब वो दुनिया से रुख़स्त हो गई, लिहाज़ा अब ज़रा सँभल के ज़िंदगी गुज़ारना। माँ की दुआएं औलाद के गर्द पहरा देती हैं। औलाद को पता नहीं होता कि माँ कब कब और कहाँ कहाँ बैठी दुआएं दे रही होती है।

ये ज़ात बुढ़ापे की वजह से हड्डीयों का ढांचा बन जाये, फिर औलाद के लिए रहमत‍ ओ‍ शफ़क्क़त का साया होती है। हमेशा औलाद के लिए अच्छा सोचती है, बल्कि औलाद की तरफ़ से तकलीफ़ भी पहुंचे तो उसे बहुत जल्द माफ़ कर देती है। दुनिया में माँ से ज़्यादा जल्द माफ़ करने वाला कोई नहीं है।

अपने बच्चे की तकलीफ़ नहीं देख सकती। इसलिए माँ का हक़ तीन बार बताया गया और चौथी बार बाप का हक़ भी बताया। वाज़िह रहे कि माँ बच्चे की पैदाइश में मशक़्क़त उठाती है और बाप का हिस्सा शहवत के साथ होता है। माँ का नुतफ़ा रहम के ज़्यादा क़रीब होता है कि सीना से आता है, जबकि बाप का नुतफ़ा पुश्त से यानी दूर से आता है, इसलिए माँ के दिल में औलाद की मुहब्बत अल्लाह ने ज़्यादा डाल दी है।

हज़रत सुलेमान अलैहिस्सलाम के ज़माने में दो औरतें अपने बच्चों को साथ लिए जंगल से गुज़र रही थीं कि एक भेड़ीया आया और एक औरत के बच्चा को छीन कर भाग गया। थोड़ी देर के बाद उस औरत के दिल में ख़्याल आया कि ये दूसरी औरत का बच्चा मैं ले लूं। ये सोच कर इसने झगड़ा शुरू कर दिया।

मुआमला हज़रत सुलेमान अलैहिस्सलाम तक पहुंचा। दोनों अपना हक़ जतलाती रही। हज़रत सुलेमान अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया छुरी लाओ, में इस बच्चे के दो टुकड़े करके दोनों ख़वातीन में आधा आधा तक़सीम कर देता हूँ। इन में से जब एक ने ये फ़ैसला सुना तो वो कहने लगी ठीक है, लेकिन जब दूसरी ने सुना तो रोना शुरू कर दिया और कहने लगी मेरे बच्चे के टुकड़े ना किए जाएं, बल्कि इस दूसरी औरत को दे दिया जाये, कम अज़ कम मेरा बच्चा ज़िंदा तो रहेगा।

हज़रत सुलेमान अलैहिस्सलाम समझ गए कि ये बच्चा उसी औरत का है, लिहाज़ा आप ने उसे अता फ़र्मा दिया। ये एक हक़ीक़त है कि माँ कभी बच्चे से ख़ुद तो नाराज़ हो जाती है, लेकिन दूसरों को नाराज़ नहीं होने देती। इसीलिए अगर बाप कभी डांट डपट करता है तो माँ से बर्दाश्त नहीं होता। वो कहती है कि क्यों उसको इतना डॉनते हैं?

ये इस मामता की वजह से है। ख़ुद झिड़की दे देगी, मगर किसी की झिड़की बर्दाश्त नहीं कर सकती।

बच्चा अपनी माँ से जब भी माफ़ी मांगता है, माँ बहुत जल्द माफ़ कर देती है। अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त तो माँ से भी ज़्यादा मोमिनीन पर मेहरबान है, इसलिए अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त से माफ़ी माँगना बहुत आसान है और बिलख़सूस रमज़ानुल-मुबारक के महीना में जो रहमतों का महीना है, परवरदिगार आलम की रहमतों और मग़फ़िरतों के दरवाज़े खुल जाते हैं तो अब तो मग़फ़िरत हासिल करने के लिए बहाने की ज़रूरत है।

माँ ख़ाह कितनी भी नाराज़ हो, मगर बच्चे की तकलीफ़ नहीं देख सकती, माफ़ कर देती है।

हुज़ूर नबी अकरम स०अ०व‍० ने एक मर्तबा एक क़ाफ़िला को देखा, एक माँ परेशान थी, उसको अपने सर पर दुपट्टा का होश भी नहीं था, इसका बेटा गुम हो गया था। वो भागी भागी फिर रही थी और लोगों से पूछ रही थी कि किसी ने मेरे बेटे को देखा हो तो मुझे बता दे।

ये मंज़र भी अजीब होता है कि किसी माँ का जिगर गोशा इससे जुदा हो गया हो। माँ का दिल मछली की तरह तड़पता है। वो अलफ़ाज़ में बयान नहीं कर सकती कि इस पर क्या मुसीबत गुज़रती है। उसकी आँखें तलाश कर रही होती हैं कि मेरा बेटा मुझे नज़र आ जाए।

हुज़ूर नबी अकरम स०अ०व० ने सहाबा किराम रज़ी० से पूछा ये माँ अपने बेटे की वजह से इतनी परेशान है, अगर उसे इसका बेटा मिल जाये तो क्या ये उस को आग में डाल देगी। सहाबा किराम ने कहा या रसूल अल्लाह! कभी नहीं डालेगी। आप ( स०अ०व०) ने फ़रमाया जिस तरह माँ अपने बच्चे को आग में डालना गवारा नहीं करती, इसी तरह अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त भी मोमिन बंदे को आग में डालना गवारा नहीं फ़रमाता लिहाज़ा अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त से माफ़ी माँगना बहुत आसान है, इसलिए कि अल्लाह तआला की मुहब्बत तो सारी दुनिया की माँ से सत्तर गुना ज़्यादा है।

सहाबा-ए-किराम ने एक नौजवान सहाबी के बारे में बताया कि या रसूल अल्लाह! उन पर सुकरात तारी है, मगर रूह नहीं परवाज़ कर रही है। हुज़ूर स००व० ने सूरत-ए-हाल मालूम की तो पता चला कि नौजवान सहाबी की वालिदा उन से नाराज़ हैं। आप ( स०अ०व०) ने वालिदा से सिफ़ारिश की कि अपने बेटे को माफ़ कर दे, मगर वो कहने लगी कि मैं हरगिज़ नहीं माफ़ करूंगी, इसने मुझे बहुत ज़्यादा दुख दिया और बहुत सताया है।

जब आप (स०अ०व०) ने देखा कि माँ अपनी बात पर अड़ी हुई है तो आप (स०अ०व०) ने सहाबा किराम से फ़रमाया लकड़ियां इकट्ठी करके आग जलाओ। जब माँ ने ये सुना तो वो पूछने लगी या रसूल अल्लाह! लकड़ियां क्यों मंगवा रहे हैं?। आप (स०अ०व०) ने फ़रमाया आग में तुम्हारे बेटे को डालेंगे।

इसने जैसे ही ये सुना, इसका दिल मोम हो गया और कहने लगी या रसूल अल्लाह! मेरे बेटे को आग में ना डालें, मैंने अपने बेटे की ग़लतीयों को माफ़ कर दिया। जब एक माँ नहीं चाहती कि इसका बेटा आग में डाला जाये तो फिर रब्बुल इज़्ज़त कैसे गवारा फ़रमाएगा कि बंदा मोमिन जहन्नुम में जाये। ईसीलिए तो किसी ने कहा है ,,,,

माँ की गोद
माँ, तेरी गोदी में सिर रख
फिर रोने को दिल करता है।
जब से है छूटा साथ तेरा,
जग सूना सूना लगता है।
हर चीज बेगानी लगती है,
हर ख्‍़वाब अधूरा लगता है।
माँ, तेरी गोदी में सिर रख
फिर रोने को दिल करता है।

तेरी यादों में दिन बीते,
तेरे सपनों में रात कटी,
तेरी सीखों का दिया मेरा
जीवन पथ रौशन करता है।
माँ, तेरी गोदी में सिर रख
फिर रोने को दिल करता है।
तुम कहती थी जग धोखा है,
दिखने में लगता चोखा है।
माँ, तेरे साथ जिया हर पल
नयनों में तैरा करता है।
माँ, तेरी गोदी में सिर रख
फिर रोने को दिल करता है।

--
akhtar khan akela

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