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07 जुलाई 2013

"उस शाम सभी दरख़्त खामोश से थे

Rajiv Chaturvedi
"उस शाम सभी दरख़्त खामोश से थे
आंधीयों से मैं हिल गया था
शब्द कुछ भी थे नहीं
परछाईयाँ उनकी जो थीं परिचित सी थीं
अखबार में तुम मर चुके थे, शेष थे अहसास में
सूर्य जब बादल की रजाई ओढ़ कर कुछ सर्द सा था, मैं तप रहा था
तेरे होने न होने का फर्क क्या था ?
तू जानती थी
हर इबारत प्यार की पहचानती थी
हर तिजारत का तरीका जानती थी
प्यार यदि उपहार है स्वीकार कर लूँगा
प्यार यदि व्यापार है इन्कार कर दूंगा
तुम्हारी इस हंसीं सूरत की सीरत जानता हूँ
इक दहकते जज़्वात का जिस्म हूँ मैं
तू महकते जश्न की तश्वीर है
तेरे मेरे दरमियां शब्द अब कुछ हैं नहीं
... सन्नाटे की आहट शोर करती है
शब्द की परछाईयाँ हैं सहमी सी
सुन सको संगीत सुन लेना अपनी ही देह तरंगों का
मैं सुबकते शब्द को ढाढस बंधाता हूँ
ह्रदय में जो धड़कता है सुना है खून है मेरा
सूख कर सिन्दूर बन जायेगा
मैं ज़िंदा हूँ सुबह तक सोच कर सुनसान रातें तो सुहागन हैं
चलो इस भोर में दिल की धडकनों को बंद करता हूँ
---बहुत यह शोर करती हैं
उठाना मत मुझे ...तुम उठा सकते भी नहीं
सामने वह दूर कार के शीशे पर पड़ी वह ओस देखो
अपनी उंगली से दर्ज कर दो उस पर मेरी भी शहादत."------राजीव चतुर्वेदी

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