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20 मई 2013

शाम का वक्त है शाख़ों को हिलाता क्यों है ?

शाम का वक्त है शाख़ों को हिलाता क्यों है ?
तू थके मांदे परिन्दों को उड़ाता क्यों है ?

वक्त को कौन भला रोक सका है पगले ,
सूइयां घड़ियों की तू पीछे घुमाता क्यों है ?

स्वाद कैसा है पसीने का , ये मज़दूर से पूछ
छांव में बैठ के अंदाज लगाता क्यों है ?

मुझको सीने से लगाने में है तौहीन अगर
दोस्ती के लिए फिर हाथ बढ़ाता क्यों है ?

प्यार के रूप हैं सब , त्याग तपस्या पूजा
इनमें अंतर का कोई प्रश्न उठाता क्यों है ?

मुस्कुराना है मेरे होंठों की आदत में शुमार
इसका मतलब मेरे सुख दुख से लगाता क्यों है ?

देखना चैन से सोना न कभी होगा नसीब
ख़्वाब की तू कोई तस्वीर बनाता क्यों है ?

..................................................कृष्ण कुमार ‘नाज़’

1 टिप्पणी:

  1. शाम का वक्त है शाख़ों को हिलाता क्यों है ?
    तू थके मांदे परिन्दों को उड़ाता क्यों है ?
    *
    मुस्कुराना है मेरे होंठों की आदत में शुमार
    इसका मतलब मेरे सुख दुख से लगाता क्यों है ?
    - बहुत सुन्दर !

    जवाब देंहटाएं

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