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19 मई 2013

दिन-रात जलता हूँ मैं

दिन-रात जलता हूँ मैं
खुद में ही पिघलता हूँ मैं !
खुद को गलाने से क्या होगा
व्यर्थ ही जलाने से क्या होगा
अक्सर ही ये सोचता हूँ मैं !
लोग इस तरह क्यूँ रहते हैं
औरों को जो दुःख देते हैं
किसी को इससे क्या मिलता है !
सब ये जानते हैं कि
जो भी बोया है
वो ही काटा जायेगा
आज जो हाथ आया लगता है
कल ही हाथ से चला जाएगा
सब कुछ समझकर भी
सब कुछ जानकार भी
जिस तरह लोग जीते हैं
कि जैसे औरों का लहू पीते हैं
समझ नहीं आता कि
क्यूँ इस तरह ये सब हो रहा है
दिन-रात जलता हूँ मैं
खुद में ही पिघलता हूँ मैं !!

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