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29 मई 2013

हिंदी पत्रकारिता दिवस पर विशेष


आज हिंदी पत्रकारिता दिवस है | हिंदी पत्रकारिता को आज 185 वर्ष हो गए है | हमारे देश में पत्रकारिता की शुरुआत पं. जुगल किशोर शुक्ल ने की थी, उन्होंने उदंत मार्तंड को रूप दिया और इसके साथ काफी लम्बे समय तक पत्रकारिता करते रहे, उदंत मार्तंड इसलिए बंद हुआ क्योंकि पं जुगल किशोर के पास उसे चलाने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं थे| पिछले 185 साल में काफी चीजे बदली है| आज बहुत से लोग इस क्षेत्र में पैसा लगा रहे है | यह एक बड़ा कारोबार बन गया है | जो हिंदी का क ख ग भी नहीं जानते वे हिंदी में आ रहे है| 185 सालो में हिंदी अखबारों एवं न्यूज़ पत्रकारिता के क्षेत्र में काफी तेजी आई है | साक्षरता बड़ी है | पंचायत स्तर पर राजनेतिक चेतना बड़ी है | इसके साथ ही साथ विज्ञापन बडे है | हिन्दी के पाठक अपने अखबारों को पूरा समर्थन देते हैं। महंगा, कम पन्ने वाला और खराब कागज़ वाला अखबार भी वे खरीदते हैं। अंग्रेज़ी अखबार बेहतर कागज़ पर ज़्यादा पन्ने वाला और कम दाम का होता है। यह उसके कारोबारी मॉडल के कारण है। आज कोई हिन्दी में 48 पेज का अखबार एक रुपए में निकाले तो दिल्ली में टाइम्स ऑफ इंडिया का बाज़ा भी बज जाए, पर ऐसा नहीं होगा। इसकी वज़ह है मीडिया प्लानर।
कौन हैं ये मीडिया प्लानर? ये लोग माडिया में विज्ञापन का काम करते हैं, पर विज्ञापन देने के अलावा ये लोग मीडिया के कंटेंट को बदलने की सलाह भी देते हैं। चूंकि पैसे का इंतज़ाम ये लोग करते हैं, इसलिए इनकी सुनी भी जाती है। इसमें ग़लत कुछ नहीं। कोई भी कारोबार पैसे के बगैर नहीं चलता। पर सूचना के माध्यमों की अपनी कुछ ज़रूरतें भी होतीं हैं। उनकी सबसे बड़ी पूँजी उनकी साख है। यह साख ही पाठक पर प्रभाव डालती है। जब कोई पाठक या दर्शक अपने अखबार या चैनल पर भरोसा करने लगता है, तब वह उस वस्तु को खरीदने के बारे में सोचना शुरू करता है, जिसका विज्ञापन अखबार में होता है। विज्ञापन छापते वक्त भी अखबार ध्यान रखते हैं कि वह विज्ञापन जैसा लगे। सम्पादकीय विभाग विज्ञापन से अपनी दूरी रखते हैं। यह एक मान्य परम्परा है।
अखबार अपने मूल्यों पर टिकें तो उतने मज़ेदार नहीं होंगे, जितने होना चाहते हैं। जैसे ही वे समस्याओं की तह पर जाएंगे उनमें संज़ीदगी आएगी। दुर्भाग्य है कि हिन्दी पत्रकार की ट्रेनिंग में कमी थी, बेहतर छात्र इंजीनियरी और मैनेजमेंट वगैरह पढ़ने चले जाते हैं। ऊपर से अखबारों के संचालकों के मन में अपनी पूँजी के रिटर्न की फिक्र है। वे भी संज़ीदा मसलों को नहीं समझते। यों जैसे भी थे, अखबारों के परम्परागत मैनेजर कुछ बातों को समझते थे। उन्हें हटाने की होड़ लगी। अब के मैनेजर अलग-अलग उद्योगों से आ रहे हैं। उन्हें पत्रकारिता के मूल्यों-मर्यादाओं का ऐहसास नहीं है।
अखबार शायद न रहें, पर पत्रकारिता रहेगी। सूचना की ज़रूरत हमेशा होगी। सूचना चटपटी चाट नहीं है। यह बात पूरे समाज को समझनी चाहिए। इस सूचना के सहारे हमारी पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था खड़ी होती है। अक्सर वह स्वाद में बेमज़ा भी होती है। हमारे सामने चुनौती यह थी कि हम उसे सामान्य पाठक को समझाने लायक रोचक भी बनाते, पर वह हो नहीं सका। उसकी जगह कचरे का बॉम्बार्डमेंट शुरू हो गया। इसके अलावा एक तरह का पाखंड भी सामने आया है। हिन्दी के अखबार अपना प्रसार बढ़ाते वक्त दुनियाभर की बातें कहते हैं, पर अंदर अखबार बनाते वक्त कहते हैं, जो बिकेगा वहीं देंगे। चूंकि बिकने लायक सार्थक और दमदार चीज़ बनाने में मेहनत लगती है, समय लगता है। उसके लिए पर्याप्त अध्ययन की ज़रूरत भी होती है। वह हम करना नहीं चाहते। या कर नहीं पाते। चटनी बनाना आसान है। कम खर्च में स्वादिष्ट और पौष्टिक भोजन बनाना मुश्किल है। आज के समय में जब हर व्यक्ति अपनी जिन्दगी के रोजमर्रा कामो में बहुत ज्यादा व्यस्त हो चूका है उसके पास इतना समय तक नहीं हे के वह अख़बार के 16 से 22 पेज में से अपने जरुरत की जानकारिय और देश विदेश में हो रही हलचल की जानकारिय पा सके | इसे समय में इ-मीडिया बहुत अच्छा विकल्प बनकर उभरा है जहा पर पाठक अपनी जरुरत के हिसाब से किसी भी क्षेत्र को चुनकर उस क्षेत्र की जानकारी और खबर हासिल कर सकता है |
इ-मीडिया के क्षेत्र में “News Bunch ” एक बेहतर विकल्प बनकर उभरा है | आज के भागमभाग वाले दोर में न्यूज़ बंच अपने पाठको को SMS एवं सोशिअल नेटवर्किंग के द्वारा खबरों को सीधे पाठक तक पहुचने का काम कर रहा है|
पत्रकारिता अमर है बस उसे करने के लिए जोशीले कर्मठ युवाओ की जरुरत है वह समय के साथ-साथ अपना रूप बदलती रहेगी | कभी प्रिंट मीडिया कभी इलेक्ट्रोनिक मीडिया के रूप में| पत्रकारिता को करने के लिए पत्रकारों को चाहिए कि वह अपना काम पुरे जोश और लगन से करते रहे और पत्रकारिता को मजबूत बनाते रहे|
जय हिंद जय भारत
प्रतीक सिंह यादव

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