घर और गांव में होने वाले रामचरितमानस के अखण्ड पाठ, साल में
कम से कम एक बार देखी जाने वाली रामलीला, ब्याह-शादियों में रामसीता के
विवाह-गीत और शवयात्रा के समय का राम नाम सत्य है। राम की चेतना ही हमारे
जीवन में कु छ इस तरह बस गई कि अनजाने में राम हमारे हीरो बन गए हैं लेकिन
राम क्यों राम बनें वे क्यों हमारी चेतना बन गए? पाठकों की इन जिज्ञासाओं
को शांत करने के उद्देश्य से ही दैनिक भास्कर के जीवनमंत्र में आज से
डॉ.विजय अग्रवाल की पुस्तक आप भी बन सकते हैं राम के कुछ खास अंश प्रकाशित
किए जा रहे हैं....
कहते हैं जिंदगी की कचहरी में किसी के लिए भी कोई भी मोहलत नहीं होती है।
जिंदगी किसी को भी रियायत नहीं देती है। फिर चाहे वे भगवान राम ही क्यों न
हों। आपको जिंदगी को अपने ही हाथों बनाना पड़ता है, उसे संवारना पड़ता है और
बदले में जिंदगी हमें वही देती है जो हम उसे देते हैं। यहां चमत्कार जैसा
भी कुछ नहीं होता और जो चमत्कार हमें दिखाई देता है, वह इसलिए दिखाई देता
है क्योंकि हमने ऐसा होते पहली बार देखा है। हमारी बुद्धि इस आश्चर्य को
समझ पाने के मामले में अपने हथियार डाल देती है।
इसलिए हम उसे चमत्कार का नाम दे देते हैं और इसे करने वाले को भगवान
या फिर ऐसा ही कुछ और। राम का अपना जीवन, यहां तक कि कृष्ण का भी जीवन
हमारे सामने जीवन के इसी विज्ञान की पुष्टि करते हैं। वहां हुआ कुछ नहीं
है। सब कुछ किया गया है जो कुछ भी हुआ है करने से हुआ है, न कि अपने आप हो
गया है। यदि वे चाहते तो बीच का रास्ता निकाल सकते थे लेकिन यदि उन्होंने
ऐसा नहीं किया , तो उसके पीछे उनकी गंभीर व यार्थाथवादी सोच काम कर रही थी।
यह सोच थी-व्यक्तित्व के गढऩ के प्राकृतिक नियम को स्वीकार करने की। राम
ने अपने भाइयों के साथ गुरुकुल में कम समय में ही सारी विद्या प्राप्त कर
ली थी।
ज्ञान तो मिल गया था लेकिन व्यक्तित्व नहीं बना था। राम इस सत्य को बहुत अच्छी तरह जानते थे कि ज्ञान के दम पर राज्य को चलाया तो जा सकता है, लेकिन उसे बचाया नहीं जा सकता है। ज्ञान की अपनी सीमा होती है। खासकर भौतिक जगत में। एक मजबूत और संतुलित व्यक्तित्व के अभाव में ज्ञान लंगड़ा होता है। ऐसे लंगड़े ज्ञान की रफ्तार कम हो जाती है। ऐसा लंगड़ा ज्ञान यदि मंजिल तक पहुंच भी जाता है तो तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। राम देरी से पहुंचने के पक्षधर नहीं थे क्योंकि वे जानते थे कि छुट्टी की घंटी बजने के बाद कक्षा में पहुंचने का कोई मतलब नहीं होता।
ज्ञान तो मिल गया था लेकिन व्यक्तित्व नहीं बना था। राम इस सत्य को बहुत अच्छी तरह जानते थे कि ज्ञान के दम पर राज्य को चलाया तो जा सकता है, लेकिन उसे बचाया नहीं जा सकता है। ज्ञान की अपनी सीमा होती है। खासकर भौतिक जगत में। एक मजबूत और संतुलित व्यक्तित्व के अभाव में ज्ञान लंगड़ा होता है। ऐसे लंगड़े ज्ञान की रफ्तार कम हो जाती है। ऐसा लंगड़ा ज्ञान यदि मंजिल तक पहुंच भी जाता है तो तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। राम देरी से पहुंचने के पक्षधर नहीं थे क्योंकि वे जानते थे कि छुट्टी की घंटी बजने के बाद कक्षा में पहुंचने का कोई मतलब नहीं होता।
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