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21 नवंबर 2012

यह सरकार की कामयाबी नहीं, मीडिया और सिस्‍टम की नाकामी है



बुधवार की सुबह मुंबई हमले में मारे गए 166 लोगों के परिजनों के लिए काफी सूकून देने वाली रही होगी। जब देश नींद से जागा तो उसे अजमल आमिर कसाब को फांसी पर लटकाए जाने की खबर मिली। थोड़ी ही देर बाद (करीब पौने नौ बजे) महाराष्‍ट्र सरकार के गृह मंत्री आर.आर. पाटील मीडिया के सामने आए और आधिकारिक तौर पर कसाब को फांसी दिए जाने की घोषणा की (। लेकिन यह 'ऑपरेशन एक्‍स' सौ फीसदी गोपनीयता के साथ अंजाम दिया गया। इस गोपनीयता और फांसी में चार साल की देरी को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं। सीबीआई के पूर्व निदेशक जोगिंदर सिंह ने भास्‍कर.कॉम के पाठकों के लिए खास तौर पर इन सवालों पर रोशनी डाली और अपना नजरिया रखा- 
 
कसाब को मुंबई के सीने पर गोलियां दागते हुए पूरी दुनिया ने लाइव देखा था। इसके बाद भी वह चार साल तक जिंदा रहा। भारत सरकार ने उसे अंततः 21 नवंबर की सुबह मौत की नींद सुलाया। सरकार देर आई, दुरुस्त आई लेकिन बहुत देर से आई। हमारे कानून पूराने पड़ चुके हैं और मौजूदा वक्त के हिसाब से बहुत ढीले हैं। यह आम नागरिक से ज्यादा सुरक्षा चोरों और आतंकियों को देते हैं।
 
सारी राजनीतिक पार्टियां इस गलतफहमी में थीं कि कसाब की फांसी से उनके मुसलिम वोट बैंक पर असर होगा। हकीकत यह है कि देश के 99 प्रतिशत मुसलमानों को सिर्फ अपने काम से मतलब है, 1 प्रतिशत ही शायद इस बारे में कुछ सोचते हैं। कसाब की फांसी में चार साल का वक्त लगना हमारे राजनीतिक दलों की इच्छाशक्ति में कमी को भी उजागर करता है। सभी पार्टियों का मुख्‍य उद्देश्य कुर्सी बचाना रह गया है। देश की आंतरिक और बाहरी सुरक्षा से ज्यादा अहमियत पार्टियां अपने राजनीतिक हितों को दे रही हैं। अफजल गुरु की फांसी को लेकर भी वे अपने वोट बैंक के नफा-नुकसान को लेकर ज्‍यादा चिंतित हैं।
 
भारत में फांसी की सजा पाए 92 कैदी मौत का इंतजार कर रहे हैं। सरकार को इनके बारे में जल्द से जल्द फैसला लेना चाहिए। फांसी की सजा के मामले में समय सीमा निर्धारित करने की सरकार से उम्मीद करना बेमानी है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट को इस बारे में फैसला लेना चाहिए। फांसी देने के लिए समय सीमा निश्चित की जानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ही ऐसा कर सकता है।
 
कसाब की फांसी के मामले में मीडिया की नाकामी भी सामने आई है। ऐसे मामलों को सरकार कभी पब्लिसिटी नहीं देती है। फांसी की घटनाएं बहुत कम होती हैं और  सरकार इसमें पूरी सतर्कता बरतती है। कसाब से पहले भारत में धनंजय चटर्जी को 2004 में फांसी दी गई थी। उसे अलीपुर सेंट्रल जेल में अगस्त 2004 में फांसी पर लटकाया गया था। 8 साल बाद किसी को फांसी दी गई है। कसाब की फांसी से पहले इसकी खबर का बाहर नहीं आना मीडिया की नाकामयाबी है। हालांकि यह नाकामयाबी इसलिए रही क्‍योंकि इसमें मीडिया की दिलचस्‍पी नहीं रह गई थी। पत्रकार चाहते तो इसका पता लगा सकते थे। सरकार की कोई चीज छुपी नहीं रहती है। लेकिन अब मीडिया को यह जरूर पता लगाना चाहिए कि भारत का कितना पैसा कसाब ने खर्च करवाया। कसाब अपनी मौत का इंतजार कर रहा था, उसे पता था कि वो मरने वाला है, लेकिन हम उस पर इतना खर्च क्यों कर रहे थे?
 
भारत ने खुद को इंसाफपरस्त दिखाने के लिए भी कसाब की फांसी में इतनी देरी की। हम इस बारे में सोच रहे थे कि दुनिया हमारे बारे में क्या सोचेगी, लेकिन सच यह है कि दुनिया का इसमें कोई इंट्रेस्ट नहीं है कि भारत कसाब को कैसे मारता है। हमें अपनी इमेज से ज्यादा अपनी आंतरिक सुरक्षा की फिक्र करनी चाहिए। जब अल कायदा ने अमेरिका पर हमला किया था और ओसामा ने जिम्मेदारी ली थी तो तब के अमेरिकी राष्‍ट्रपति जॉर्ज बुश ने 120 आतंकियों की लिस्ट पर दस्तखत करके सीआईए को उन्हें जिंदा या मुर्दा पकड़ने के आदेश दिए थे। क्या भारत में आज तक किसी भी मंत्री या प्रधानमंत्री ने ऐसा आदेश देने की हिम्मत दिखाई है? आतंकियों का डेथ वारंट निकालते वक्त अमेरिका ने यह नहीं सोचा था कि दुनिया क्या कहेगी। लेकिन हम इसी सोच में रह गए कि दुनिया क्या सोचेगी।
 
कसाब की फांसी के बाद अगर हम यह सोच रहे हैं कि इससे आतंकियों में खौफ पैदा होगा, तो यह गलतफहमी ही होगी। एक मिनट के लिए सावधानी हटने पर भारत में दुर्घटना घट सकती है। हमें और ज्यादा चौकस रहना होगा। पाकिस्तान के घुसपैठिये भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं। हम जब तक अपनी सीमा को सुरक्षित नहीं करेंगे तब तक भारत सुरक्षित न

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