बाड़मेर.भारत पाक बंटवारे के बाद पाकिस्तान में बसे बाड़मेर के
हाजी अब्दुल सत्तार करीब तीस वर्ष बाद अपने वतन की मिट्टी के दीदार व
घरवालों तथा दोस्तों की ख्वाहिश पाले बाड़मेर आना चाह रहे थे। मगर उन्हें
इसकी इजाजत नहीं मिली। मजबूरन उन्हें अपनी ससुराल बीकानेर रुकना पड़ा। फिर
काफी मिन्नतों के बाद उन्हें मात्र सात दिन के लिए बाड़मेर रहने की परमिशन
मिली। इन सात दिनों में वह अपने घरवालों के साथ दोस्तों से भी मिले।
शनिवार को वह अपने वालिद की मजार पर गए और अकीदत के फूल चढ़ाए।
उन्होंने इन पलों में सुकून का इजहार किया और कहा नसीब वालों को मयस्सर
होती है मादरे वतन की मिट्टी। शनिवार की रात अपने रिश्तेदारों के अलावा
अपने पुराने दोस्तों के साथ गपशप की ओर करीब रात ढाई बजे सो गए। सुबह जब घर
वालों ने चाय के लिए जगाया तो वो दुनिया से अलविदा हो चुके थे। रविवार शाम
उनके भाई हाजी अब्दुल गनी के यहां से निकले जनाजे में उनके परिवार वालों
के साथ उनके हिंदू दोस्त भी शरीक हुए।
पिता के कदमों में किया दफन
पूर्व सदर अशरफ अली ने बताया कि मामा (अब्दुल) बाड़मेर आने के बाद
बहुत खुश थे। रात को कह रहे थे कि बाड़मेर आने के बाद उनकी सबसे बड़ी
ख्वाहिश पूरी हो गई है। वह कई सालों से यहां आने के लिए कोशिश कर रहे थे,
लेकिन परमिशन नहीं मिलने के कारण बाड़मेर नहीं आ पा रहे थे। रविवार को वे
पूर्वजों के साथ चिरनिंद्रा में सो गए। उन्होंने बताया कि मामा को अपने वतन
व बाड़मेर से खासा लगाव था,उनके पिता की मजार के पास ही दफनाया गया।
सार्थक प्रस्तुति हेतु साधुवाद
जवाब देंहटाएंदुर्गा अष्टमी की सभी को हार्दिक शुभकामनायें