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22 मई 2012

7 दिन में 'बिक' जाता पूरा भारत..इस 1 महीने ने बदल दी थी देश की तकदीर!



भारतीय इतिहास में 24 जून 1991 से लेकर 24 जुलाई 1991 तक के 1 महीने की अहमियत कितनी है, ये शायद बहुत कम लोगों को ही पता है, लेकिन ये 1 महीना भारत की तकदीर बदलने को नई तस्वीर देने के लिए काफी था। वो भी उस दौर में जब भारतीय अर्थव्यवस्था पूरी तरह से वेंटीलेटर पर पड़ी हुई आखिरी सांसे गिन रही थी। इन आखिरी सांसों में भी ज्यादा दम नहीं बचा था। आखिरी सांसों का ये दौर 1991 के शुरूआती 6 महीनों से पहले का दौर था, तब पी वी नरसिम्हा प्रधानमंत्री हुआ करते थे।

अब आप सोच रहे होंगे कि आखिर इस 1 महीने ने कैसे भारत की तकदीर बदल दी? तो जनाब आइए हम आपको बताते हैं कि आखिर माजरा क्या है। दरअसल, 1990 के पहले के दौर में भारतीय अर्थव्यवस्था पूरी तरह से कंगाल हो चुकी थी। विदेशी निवेश भी न के बराबर था। वहीं विश्व बैंक से लेकर आईएमएफ जैसे ऋण देने वाले संस्थानों का भी भारत पर से विश्वास उठ चुका था। आलम ये था कि भारत के पास इतना पैसा भी नहीं बचा था कि वो 1 हफ्ते से ज्यादा तक आयात कर सके। भारत का सारा सोना बिक चुका था। अर्थव्यवस्था करीब 29000 करोड़ डॉलर से दबी हुई थी।

ऐसे समय में भारतीय अर्थव्यवस्था को ऑक्सीजन देने का काम पी वी नरसिम्हा राव और तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने किया था। अर्थव्यवस्था को कांटों के ताज से निकालने का जिम्मा लिये मनमोहन सिंह पूरी तरह से तैयार दिख रहे थे, हालांकि ये काम इतना आसान नहीं था। वित्त मंत्री ने कार्यभार संभालते ही एक नई टीम बनाकर काम करना शुरू किया। वित्त मंत्रालय में मीटिंगों की झड़ी सी लग गई थी। अर्थव्यवस्था को दौड़ाने के लिए नई पॉलिसी तैयार करने का काम भी तेजी से चालू हो गया था। वाणिज्य सचिव मोंटेक सिंह अहलूवालिया, उद्योग मंत्री पी चिदंबरम और राकेश मोहन के बीच कई दौर में बैठके हुईं।

दिलचस्प है कि वित्त मंत्री का एक्शन प्लान पूरी तरह से साफ था। विश्व बैंक और आईएमएफ को इस बात का भरोसा दिलाना कि भारत में पैसा लगाने का मतलब पूरी तरह से फायदा होना ही है। हालांकि ये इतना आसान काम नहीं था। इस काम के लिए मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री की ओर से पूरी आजादी थी। भारतीय अर्थव्यस्था के बेहतर होने का ये भी एक बड़ा कारण था।

वित्त मंत्री ने एक नई योजना तैयार करते हुए भारतीय रुपये के अवमूल्यन का फैसला लिया। इस फैसले में रुपये में 20 फीसदी तक अवमूल्यन किया गया। हालांकि 20 फीसदी के अवमूल्यन को 1 बार में किया जाए या 2 बार में, इस बात को लेकर प्रश्न खड़ा हो रहा था। जहां आरबीआई इसे 1 बार में करना चाहता था, वहीं वित्त मंत्री 2 चरणों में ये अंजाम देने की सोच रहे थे। आरबीआई की ये सोच आईएमएफ के दबाव के चलते थी। वहीं वित्त मंत्री सिंह किसी के भी दबाव में राष्ट्रहित के खिलाफ कुछ भी करने को तैयार नहीं थे।

उस दौरान 3 दिन के अंदर भारतीय रुपये की कीमत डॉलर के मुकाबले 21.09 रुपये से घटकर 25.95 रुपये पहुंच गई थी। ये उस दौर का आखिरी अवमूल्यन था। इसके बाद ही एक प्रेंस कॉन्फ्रेंस बुलाकर वाणिज्य मंत्री और वित्त मंत्री उदारवादी व्यापार नीति का खुलासा किया। इस नीति की हर तरफ प्रशंसा हो रही थी। इस नीति के बाद 6 जुलाई को भारत से 25 टन सोना बतौर प्रतिभूति यानि गारंटी लंदन के बैंक ऑफ इंग्लैंड भेजा गया। ये प्रतिभूति 2000 लाख डॉलर के बदले दी गई थी। इसके 1 हफ्ते बाद फिर करीब 10 टन सोना विदेश भेजा गया। इसका कारण भी पैसा जुटाना ही था। 18 जुलाई को वित्त मंत्री के कहने पर भारत की ओर से 12 टन सोना लंदन के बैंक ऑफ इंग्लैंड में जमा किया गया। यानि 3 हफ्तों में करीब 47 टन सोना इंग्लैंड भेजा गया।

यही वो पल था जब भारत की तकदीर बदलते हुए दिख रही थी। 18 जुलाई के बाद भारत 4000 लाख डॉलर का लोन लेने के लायक बन गया था। 18 जुलाई के ठीक 6 दिन बाद यानि 24 जुलाई को मनमोहन सिंह ने बतौर वित्त मंत्री उदारवादी बजट पेश कर वेंटीलेटर पर पड़े भारत को फिर से विकासशील देशों की रेस में आगे कर दिया था। इसी दिन संसद में उद्योग नीति को भी प्रस्तुत कर दिया गया। कुल मिलाकर 24 जून से 24 जुलाई तक का ये अहम दौर भारत की तकदीर बदलने का सबसे बड़ा कारण बनकर सामने आया है।

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