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18 जनवरी 2012

जब किसी को कोसते हैं तो कहते हैं- जा! तेरा पानीपत हो जाए’’




पानीपत की जमीन से मराठों का देश मीलों दूर है। लेकिन यहां बहा पुरखों का खून, उन्हें आज भी भावनात्मक रूप से इस जमीन से जोड़े हुए है। यह भावनाएं कहीं कुर्बानियों की स्मृति के रूप में हैं तो कहीं उस महाविनाश की टीस के रूप में। इस टीस का ही परिणाम है कि मराठा जीवन में ‘पानीपत’ नाश का सूचक हो चुका है। पानीपत के तीनों युद्धों पर आधारित पुस्तक ‘पानीपत के युद्ध’ लिख चुके रमेश चंद्र पुहाल बताते हैं, ‘ मराठे पानीपत को एक अपशकुन के रूप में देखते हैं। वे जब किसी को कोसते हैं तो कहते हैं- जा! तेरा पानीपत हो जाए।’’

१७६१ के युद्ध के बाद उत्तर भारत की राजनीति में मराठों का प्रभाव क्रमश: कम हुआ लेकिन उन्होंने इस समुचे प्रदेश की संस्कृति और लोककलाओं पर गहरी छाप छोड़ी। इस छाप को उत्तर भारत के किसी भी धार्मिक या ऐताहसिक नगर में देखा जा सकता है। पानीपत भी इस प्रभाव से अछुता नहीं है। इस शहर में ऐसे अवशेष मौजूद हैं, जो मराठों और पानीपत के सांस्कृतिक संबंधों का संकेत देते हैं।

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में प्राचीन इतिहास, संस्कृति और पुरातत्व के प्रोफेसर रह चुके एचए फड़के ने एक शोधपत्र में लिखा है,‘‘पानीपत तहसील के पुराने नक्शे में भाऊ या भाऊपुर नामक गांव का जिक्र मिलता है। यह गांव यमुना के किनारे बसा था और यहां एक किले के अवशेष भी मौजूद थे, जिसे भाऊ के किले के नाम से जाना जाता है।’’ हालांकि कई अन्य इतिहासकार इसे लोक किंवदंती भर मानते हैं।

आम धारणा यह है कि सदाशिव राव भाऊ पानीपत के युद्ध में 14 जनवरी 1761 को शहीद हो गए थे। उनका सिर कटा शरीर तीन दिन बाद लाशों के ढेर में मिला था। एक किंवदंती यह भी है कि सदाशिव राव भाऊ ने युद्ध के तुरंत बाद रोहतक के करीब सांघी गांव में शरण ली थी।

मराठा सेनापति ने बनवाया पानीपत का देवी मंदिर : पानीपत शहर में मराठों की स्मृति के रूप मे देवी मंदिर भी मौजूद है। इस मंदिर का निर्माण मराठा सेनापति गणपतिराव पेशवा ने करवाया था। पानीपत शहर की सांस्कृतिक विरासत पर कई शोधपत्र लिख चुके डा. राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी के अनुसार, ‘‘देवी मंदिर पानीपत में मराठों के योगदान का एक प्रमाण है।

इस मंदिर में मौजूद हरहरेश्वर की प्रतिमा उपसना में मराठों के योगदान का महत्वपूर्ण प्रतीक है। ’’ देवी मंदिर में स्थित हरहरेश्वर की प्रतिमा मध्यकालीन भारत में विकसित वास्तु से प्रभावित है। भूरे पत्थर से बनी यह प्रतिमा विष्णु और शिव का संयुक्त रूप है

इस प्रतिमा के दाएं भाग में शिव का रूप है। इसके हाथ में त्रिशूल और अक्षमाला है। प्रतिमा का वाम भाग विष्णु का रूप है। इसके हाथ में शंख और चक्र है। प्रतिमा के दाएं नंदी और बाएं गरुड़ बैठे हैं। पंचरथ पर स्थित प्रतिमा के इर्दगिर्द मध्यकालीन प्रतिमाओं की भांति सेविकाएं बनी हुई हैं। इस मंदिर के पास ही गंगा मंदिर भी है। यहां हिंदू परंपरा के संत महात्मा शिवगिरी की समाधि है। इस समाधि का निर्माण भी गणपतिराव पेशवा ने ही करवाया था। महात्मा शिवगिरी के अध्यात्मिक प्रभाव का वर्णन तजकरा-ए-गौसअलीशाह में भी मिलता है।

मराठों का वंशज है रोड़ समुदाय: हरियाणा की रोड़ जाति आज भी यहां मराठा परंपरा को जीवित रखे हुए है। यह जाति स्वयं को मराठा वंशज मानती है। दरअसल 1761 के युद्ध में अधिकतर मराठे मारे गए थे। जो बचे उनमें से कुछ तो वापस लौटे कुछ यहीं बस गए। जो मराठे यहां बस गए, वे स्वयं का रोड़ मराठा मानते हैं। उनका कहना है कि रोड़ महाराष्ट्र की 96 जातियों में से एक है और इसकी उत्पत्ति महाराजा रोड़ से हुई है।

रोड़ जाति के इतिहास पर काम कर चुके दिलीप सिंह के अनुसार,‘‘रोड़ जाति १३वीं शताब्दी के राजा रोड़ की वंशज है। इनका राज्य आगरा और ग्वालियर के बीच बसे खगरौल इलाके में था।’’

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